स्वस्थ जीवन के लिए प्रकृतिक चिकित्सा है वरदान



स्वस्थ जीवन के लिए प्रकृतिक चिकित्सा है वरदान 

आज की तेज रफ्तार जिंदगी में स्वस्थ जीवन जीना एक चुनौती बन गया है। इसमें अनुचित खान-पान एवं रहन-सहन की भूमिका प्रमुख है। यद्यपि हम चाहें तो अपने दैनिक कार्य कलापों से स्वयं को स्वस्थ रख सकते  हैं, किन्तु स्वास्थ्य संबंधी जानकारी के अभाव में प्रायः ऐसा सम्भव नहीं हो पाता। और तो और, अज्ञानतावश मनुष्य अपने स्वास्थ्य के साथ ऐसा व्यवहार भी करता है, जो प्रकृति के प्रतिकूल होता है। ऐसे में उसका स्वास्थ्य प्रभावित होता है।

स्वस्थ जीवन जीना और दीर्घायु प्राप्त करना कौन मनुष्य नहीं चाहेगा ? 

प्रसिद्ध वैदिक सूत्र वाक्य ‘जीवेम शरदः शतम्’ स्वास्थ्य की इसी अवधारणा को अभिव्यक्त करता है। स्वस्थ जीवन जीने के लिए प्राचीन ऋषी-मनीषियों ने विभिन्न ग्रन्थों में अनेकानेक उपाय सुझाए हैं तथा हमें राह दिखाई है। किन्तु विस्तृत कलेवर वाले उन ग्रन्थों को पढ़कर आत्मसात् कर पाना कदाचित् सम्भव नहीं है। इसके लिए आवश्यकता होती है एक ऐसी पुस्तक की, जिसमें स्वस्थ रहने के उन उपायों की जानकारी दी गई हो, जो अनुभवसिद्ध हों, ज्ञानसिद्ध हों और सुपरिणामसिद्ध हों।

प्रकृति और मनुष्य का अति घनिष्ठ संबंध है-ठीक माता और पुत्र की तरह, माता के गर्भ में पल रहे शिशु की तरह। जिस प्रकार माता अपने ‘रज’ से शिशु की शारीरिक और मानसिक संरचना को रूप एवं आकार देती है और फिर अपने द्वारा खाए गए भोजन को पोषण के योग्य बनाकर शिशु के शरीर को पूर्णता प्रदान करती है, ठीक उसी प्रकार प्रकृति मनुष्य के शरीर की संरचना कर उसे निरंतर पोषित करके स्वस्थ और समर्थ शरीर प्रदान करती है, बुद्धि-कौशल से परिपूर्ण मस्तिष्क प्रदान करती है।

माता के गर्भ में पल रहा शिशु जन्म-काल के समय तक शारीरिक संरचना को तो प्राप्त कर लेता है, किंतु जीवन की सामर्थ्य उसमें नहीं होती है। अतः माता कुछ वर्षों तक जब तक कि शिशु स्वयं भोजन करने और शारीरिक क्रियाओं को समझने में समर्थ नहीं हो जाता, शिशु का ध्यान रखती है; किंतु समझदार होते ही वह शिशु को स्वत: जीवनयापन के लिए प्रेरित करते हुए धीमे-धीमे अपना सहयोग कम करती जाती है। किंतु प्रकृति तो मनुष्य को आजीवन पोषण और स्वास्थ्य प्रदान करने के लिए अपनी गोद खुली रखती है, वह कभी व्यक्ति की उपेक्षा नहीं करती है। इस दृष्टि से तो प्रकृति और मनुष्य का संबंध सांसारिक माता और शिशु के संबंध से भी कहीं अधिक घनिष्ठ और महत्त्वपूर्ण है।

प्रकृति माँ की गोद में तो अतिसूक्ष्म एक कोशीय प्राणियों से लेकर पेड़-पौधों और जलचर, थलचर तथा आकाश में उड़नेवाले असंख्य जीव-जंतु पलते हैं किंतु उन सब में अपनी बुद्धि के विशेष विकास के कारण मनुष्य प्रकृति की श्रेष्ठ कृति है। अतः प्रकृति के साथ अपने संबंध को मनुष्य सर्वाधिक अच्छे ढंग से समझ सकता है, समझना भी चाहिए, किंतु दुर्भाग्य की बात है कि संसार के समस्त जीवधारियों में प्रकृति से जितना अधिक दूर होने का प्रयास मनुष्य ने किया है उतना अन्य किसी प्राणी ने नहीं किया। बनावटी जीवन जीने की इस गलत धारणा ने ही मनुष्य को प्रकृति का सबसे अधिक बुद्धिमान किंतु सबसे अधिक रोगी प्राणी बना दिया है। अपनी इसी भूल के कारण मनुष्य नित नई बीमारियों का शिकार हो रहा है, और दुर्भाग्यपूर्ण जीवन जीने को विवश हो जा रहा है।

मनुष्य कितना भी बुद्धिमान हो जाए, सुख और वैभव की तलाश में वह कितनी ही नई खोजें कर लें, अपने चारों ओर बनावटी साधनों की कितनी ही भीड़ जुटा ले, अपनी बुद्धिमत्ता पर कितना भी इतरा ले, मगर वास्तविकता यह है कि वह जो नए संसाधन खोज रहा है, उन सबका आधारभूत स्रोत तो प्रकृति ही है। हमने बहुत आलीशान महल बना लिया, मगर इस महल के लिए ईंट, पत्थर, बालू, सीमेंट, लोहा, लकड़ी आदि प्राप्त कहाँ से किया ? प्रकृति से ही न ? मगर प्रकृत रूप में नही, विकृत रूप में। हमने हवाई जहाज, रेलगाडी और कारें बना लीं, मगर उन्हें बनाने के लिए लोहा प्राप्त कहाँ से किया ? प्रकृति से ही न ? अतः किसी भी रूप में मनुष्य प्रकृति पर आश्रित होने से बच नहीं सकता। प्रकति माँ के उपकारों से इनकार नहीं कर सकता। वह अपनी बुद्धि के प्रयोग से प्रकृति को विकृति में बदलकर अपने सभ्य होने का भ्रम भर पाल सकता है। और यह भ्रम ही मनुष्य के सारे कष्टों का मूल कारण है।

मोटे तौर पर प्रकृति का निर्माण पंच-महाभूतों से मिलकर हुआ है। ये पंच महाभूत हैं-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। प्रकृति ने अपनी ममता का परिचय देते हुए मनुष्य के शरीर को इन पंच-महाभूतों के श्रेष्ठ स्वरूप से गढ़ा है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से मिलकर ही शरीर की संरचना हुई है। यही नहीं, प्रकृति ने इन पंच-महाभूतों के उपयोग के लिए अपने द्वार मनुष्य के लिए सर्वदा खुले रखे हैं। और इन पंच-महाभूतों को ग्रहण करने के 
लिए मनुष्य के शरीर में इंद्रियों की सुंदर व्यवस्था भी की है।

शरीर में जो कुछ भी हमें स्थूल और भारी दिखाई दे रहा है-त्वचा मांस अस्थि, बाल आदि-प्रकृति के पृथ्वी तत्त्व से बने हैं। और स्थूल तत्त्वों को देखने के लिए आँखें, सूघने के लिए नासिका, स्वाद के लिए जिह्वा, स्पर्श करने के लिए त्वचा तथा शरीर के अंदर पहुँचाने के लिए मुख की व्यवस्था प्रकृति ने की है। यही नहीं, इन स्थूल तत्वों से पौष्टिक पदार्थों के अवशोषण के पश्चात् जो कुछ भी मल बचता है, उसे बाहर निकालने के लिए उपस्थ और गुदा इंद्रिय की भी व्यवस्था प्रकृति ने की है। 

शरीर की नस-नस में दौड़ते रक्त को तरल बनाए रखने के लिए प्रकृति ने जलीय संसाधनों और रसपूर्ण पदार्थों की व्यवस्था की है। भोजन को पचाने के लिए विभिन्न प्रकार की अग्नियों की व्यवस्था की है। वायु द्वारा पोषण और गति के लिए फेफड़े आदि वायु तंत्रों की व्यवस्था की है और कोशिकाओं से लेकर ऊतक तंत्रों तथा अंगों के अंदर रिक्त स्थान बनाकर आकाश तत्त्व की भरपूर व्यवस्था की है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश-प्रकृति से लेकर व्यक्ति शरीर तक समान रूप से अपना कौशल दिखाते हैं और मनुष्य को प्रकृति के साथ निरंतर जोड़े रहते हैं, उससे निरंतर पोषण प्राप्त करके शरीर को सभी प्रकार से स्वस्थ्य और सूक्ष्म बनाने में जुटे रहते हैं।

प्रकृति ने अपने तीन गुणों-सतोगुण, रजोगुण, और तमोगुण तथा तीन प्रकार के दोषों-वात, पित्त और कफ के द्वारा व्यक्ति के शरीर को संतुलित करने का प्रावधान किया है, दिन और रात बनाकर व्यक्ति को कर्म और विश्राम करने की व्यवस्था की है, किंतु मनुष्य ने प्रकृति की इन खूबियों इन गुणों को अपनाने की अपेक्षा इनका दुरुपयोग करने में ही अपनी शान समझी है। परिणामतः मनुष्य लगातार विकृति का शिकार होकर अस्वस्थ होता जा रहा है।

प्रकृति एक ममतामयी माँ की तरह निरंतर मनुष्य को पुकारती रही है कि आ, मेरी गोद में आ जा, मैं तेरे सारे दुःख और क्लेश दूर कर दूँगी, विश्वास दिलाती रही है कि देख, अनगिनत पशु-पक्षी मेरी गोद में मुदित मन होकर छलाँगे भर रहे हैं। कोई न अस्वस्थ है, न किसी चिकित्सक के पास जा रहा है। जिसकी जैसी आवश्यकता है, मेरे पृथ्वी, जल, सूर्य, वायु, आकाश तत्त्व उनकी निरंतर पूर्ति कर देते हैं, मगर नहीं, मनुष्य तो अपने ज्ञान के मद में चूर प्रकृति के संसाधनों का दोहन करके उन्हें कृत्रिम बनाने में जुटा है, प्रकृति से दूर जाने में जुटा है। वह जानकर भी अपनी गलतियों को स्वीकार करना नहीं चाहता, अपने मूल उत्स से जुड़ना नहीं चाहता, फिर उसे कोई स्वयं पैदा की गई विकृति से आखिर बचा भी कैसे सकता है ?

प्रकृति नित्य प्रायः सूर्य को भेजती है कि अपने आलोक की किरणें बिखेरकर वह जीवधारियों को जगा सके। भोर होते ही पशु-पक्षी कलरव करने लग जाते हैं, मगर मनुष्य अभागा धूप चढ़े तक बिस्तर में अँगड़ाई लेता रहता है। प्रकृति रात भर चंद्रमा द्वारा शीतल चाँदनी से नहलाई ओस को तैयार रखती है कि उसका सर्वश्रेष्ठ पुत्र मनुष्य उस पर टहलकर मन और मस्तिष्क को शीतल तथा शांत बनाएगा; मगर नहीं, हमने प्रण कर लिया है कि बीमार हो जाएँगे किंतु ओस नहाई घास पर नहीं टहलेंगे। प्रकृति ने वनस्पतियों का अकूत खजाना हमारे लिए तैयार रखा; कितु नहीं, हम न उसके बारे में जानेंगे, न प्रयोग करेंगे। प्रकृति ने मधुर वायु संचरित कर रखी है कि विशुद्ध श्वास लो और शरीर को बलिष्ठ बनाओ, मगर नहीं, हम तो कृत्रिम एयर कंडीशनर की हवा द्वारा अपने को स्वस्थ रखने का भ्रम पाले रहेंगे और लगातार बीमारियों की ओर बढ़ते रहेंगे। बदलते मौसम के साथ न दिनचर्या बदलेंगे और न खान-पान। मनुष्य की यही जिद उसे प्रकृति से दूर ले जाने और कृत्रिम जीवन जीकर बीमार होते जाने का सबसे बड़ा कारण है। अतः पहली आवश्यकता है कि हम अपने शरीर के मूल आधार-प्रकृति-को पहचानें। 

प्रकृति के साथ अपने अटूट और घनिष्ठ संबंध को खुली आँखों से देखें और उसके अनुकूल आचरण करके अपने सुखी और स्वस्थ जीवन की नींव को सुदृढ़ करें। प्रकृति माँ है हमारे शरीर की एक-एक कोशिका और उसमें चल रही क्रिया प्रकृति की देन है। हमारा एक-एक श्वास प्रकृति से प्राप्त वायु से चल रहा है, हमारा समूचा अस्तित्व ही प्रकृति की कृपा पर टिका है, अतः इस शाश्वत संबंध को पहचानना चाहिए और उसके अनुकूल आचरण करना चाहिए। हमारे शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शांति तथा बौद्धिक विकास की दिशा में यह पहला ठोस कदम है। प्राकृतिक चिकित्सा का यह पहला आधारभूत सिद्धांत है।

जब हम यह कहते हैं कि मनुष्य प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ कृति है, तो हमारा आशय होता है कि प्रकृति ने अपने सर्वश्रेष्ठ तत्त्वों और सर्वोत्कृष्ट प्रयासों द्वारा मानव शरीर का गठन किया है। प्राकृतिक तत्वों के संतुलन और ममतापूर्ण गठन का नाम ही तो स्वास्थ्य है। मानव शरीर में प्राकृतिक तत्वों का यह संतुलन जैसे ही गड़बड़ाता है, मनुष्य अस्वस्थ हो जाता है। अतः स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए प्राकृतिक तत्वों के संतुलन का प्रयास ही ‘प्राकृतिक चिकित्सा’ है| 

स्वयं प्रकृति का संगठन पंच-महाभूतों से मिलकर हुआ है। ये पंच-महाभूत हैं-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। निश्चित ही प्रकृति ने मानव शरीर की रचना इन्हीं पंच-महाभूतों के योग से की है।

पृथ्वी तत्त्व

यह ठोस, भारी, स्थूल तथा रूप और आकार से युक्त है। इस प्रकार मानव शरीर में जो भी ठोस, भारी, स्थूल तथा रूपाकार से युक्त भाग है, सभी कुछ पृथ्वी तत्त्व की देन है। मांस, मज्जा, अस्थि, बाल, नाखून आदि सभी कुछ हमें पृथ्वी तत्त्व की ही देन है। पृथ्वी के इस ठोस तत्त्व को हम मुख द्वारा ग्रहण करते हैं। पृथ्वी अपने स्वरूप को हमारे ग्रहण योग्य बनाने के लिए विभिन्न प्रकार के खाद्यान्नों का सर्जन करती है-गेहूँ, जौ, चना, मटर, मक्का, बाजारा, दालें, वसा, मिष्टान्न, खनिज लवण, विटामिंस आदि पृथ्वी तत्त्व की ही देन हैं। शरीर में जैसे इन तत्वों की कमी या अधिकता होती है, यह असंतुलन ही विभिन्न प्रकार के शारीरिक और मानसिक रोग पैदा कर देता है।

जल तत्त्व

यह द्रव रूप में है और पतला होने के कारण अपने आधार पात्र के अनुरूप आकृति ग्रहण कर लेता है। इसमें संचरण का विशेष गुण है। इसी कारण यह अवशोषित भी हो जाता है। शरीर में जो कुछ संचरणशील द्रव पदार्थ है, वह प्रकृति का जलीय अंश ही है। इस अंश की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह ठोस पदार्थों को अपने अंदर घोल लेता है। मानव शरीर पृथ्वी तत्त्व के ठोस स्वरूप को यथावत् ग्रहण करने में समक्ष हो जाता है और ये तत्त्व शरीर का निर्माण करने योग्य बन जाते हैं। अतः जल का इस दृष्टि से विशेष महत्त्व है। जल तत्त्व की कमी के कारण शरीर शक्ति और सामर्थ्य प्राप्त नहीं कर सकता है।

अग्नि तत्त्व

अग्नि तत्त्व तेजस् स्वरूप है। दाहकता अग्नि तत्त्व का मूल गुण है। इसी गुण से यह तत्त्व पृथ्वी तत्त्व और जल तत्त्व को भस्मीभूत करके उन्हें निर्मल बनाता है। पृथ्वी और जल तत्त्व दोनों की प्रकृति अधोगामी है। ये दोनों तत्त्व ऊपर से नीचे की ओर जाते हैं, जबकि अग्नि तत्त्व अपनी ऊर्ध्वगामी प्रकृति के कारण नीचे से ऊपर की ओर उठता है। प्रकाशित करना तेज के प्रधान गुणों में से एक है। इसी आधार पर यह दीप्त होता है। शरीर में निर्मलता और तेज अग्नि तत्त्व के कारण ही होता है। पृथ्वी और जल तत्त्व से ग्रहण किए गए पौष्टिक पदार्थों को परिपक्व करके शुद्ध रूप में शरीर को देना या पचाना अग्नि तत्त्व का ही कार्य है। अग्नि तत्त्व के अभाव में भोजन और जल शरीर में पच नहीं पाते हैं।

वायु तत्त्व

वायु तत्त्व का मुख्य गुण गतिशीलता है। अपने इसी गुण के आधार पर वायु तत्त्व संपूर्ण शरीर में संचारित होता है। शरीर में रक्त तथा मल-मूत्रादि पदार्थों की गति भी वायु तत्त्व के कारण ही संभव होती है। वायु की तीव्रता या मंदता अनेक प्रकार के विकार पैदा करती है। इन विकारों के कारण अग्नि द्वारा पोषित पदार्थ शरीर के अपेक्षित अंगों तक नहीं पहुँच पाते हैं या दूषित पदार्थ इन अंगों से नहीं निकल पाते हैं। इस अवस्था में अनेक प्रकार के रोग पैदा हो जाते हैं। श्वसन क्रिया के माध्यम से शरीर को प्रकृति के सीधे संपर्क में रखना और स्वच्छ शीतल तथा गुणकारी वायु से शरीर को जीवन-दान देने का कार्य भी वायु तत्त्व का ही है। सामान्य व्यक्ति वायु के अभाव में तीन मिनट से अधिक जीवित नहीं रह सकता।

आकाश तत्त्व

शरीर में जितना भी शून्य या रिक्त स्थान है, वह सब आकाश तत्त्व का अंश माना जाता है। वायु को संचारित होने के लिए, अग्नि को प्रज्वलित होने के लिए, जल को गतिशील होने के लिए तथा पृथ्वी तत्त्व को अवशोषित होने के लिए रिक्त स्थान का होना अपरिहार्य है। इस प्रकार उक्त चारों तत्त्व आकाश तत्त्व में ही प्रतिष्ठित और सक्रिय होते हैं। भोजन को ग्रहण करनेवाली आहार नाल, जल-मिश्रित रक्त को प्रवाहित करने वाली नाड़ियाँ अग्नि को प्रदीप्त करनेवाले अंग और वायु को ग्रहण करनेवाला श्वसन तंत्र आदि सभी रिक्त होने के कारण ही अपने-अपने कार्य कलाप पूरे कर पाते हैं। इस प्रकार आकाश, तत्त्व शरीर के लिए अति महत्त्वपूर्ण है।

पंच तत्त्वों का शरीर में स्थान

यों तो हमारे शरीर की एक-एक कोशिका उपर्युक्त पंच तत्त्वों से संपन्न है और प्रतिपल इन्हीं की क्रियाओं को पूरा करके शरीर को जीवित रखे हुए हैं, किंतु फिर भी शरीर में पाँच तत्त्वों के पाँच प्रधान क्षेत्र हैं। इन क्षेत्रों को प्रधान इसलिये कहा जाता है कि इन क्षेत्रों में किसी एक तत्त्व की प्रधानता होती है तथा शेष तत्त्व गौण रूप में अपने कार्य-कलाप करते हैं। जैसे-कटि प्रदेश से नीचे नितंब, जंघा, पिंडली और पैर तथा हाथों का ठोस भाग-हड्डी, मांस आदि ठोस पदार्थ-प्रधान हैं, इसिलए इस क्षेत्र को पृथ्वी तत्त्व की अधिकता का क्षेत्र कहा जाता है।

कटि प्रदेश से हृदय क्षेत्र तक पेट के अंदर के सभी अंग अपनी बनावट में तो पृथ्वी तत्त्व से बने हैं किंतु इनमें तरल पदार्थों की अधिकता होती है। यहीं ठोस भोजन जल से मिलकर जलीय या द्ववीय रूप धारण करता है तथा अवशोषित होकर पचता है। अतः पेट का भाग जल तत्त्व-प्रधान है।पेट से ऊपर गरदन तक के भाग में स्थित फेफड़े वायु तत्त्व को ग्रहण करने, उसे परिशोधित करने शरीर के विभिन्न भागों तक पहुँचाने का कार्य करते हैं। अतः शरीर के ये अंग वायु प्रधान क्षेत्र के नाम से जाने जाते हैं।

तेजस् क्षेत्र का मुख्य भाग मुख प्रदेश, खासकर नेत्र और उनके आस-पास का क्षेत्र है। यहीं से तेजस् तत्त्व ग्रहण होता है और यहीं सबसे अधिक दीप्त भी होता है। अतः यह क्षेत्र तेजस् या अग्नि तत्त्व प्रधान माना जाता है।नेत्रों से ऊपर अर्थात् भृकुटि से मस्तिष्क तक का क्षेत्र आकाश-प्रधान क्षेत्र माना जाता है। इस क्षेत्र में आकाश तत्त्व तथा उसके गुणों को ग्रहण करने की विशेष क्षमता होती है।

अपने-अपने क्षेत्रों के अनुसार विभिन्न तत्त्व अपने गुण-दोष भी इन्हीं क्षेत्रों में अधिक प्रकट करते हैं। जल संबंधी रोग पेट में वायु संबंधी रोग छाती में तेज संबंधी रोग मुख पर तथा मनोविकार संबंधी रोग मस्तिष्क में अधिक होते हैं इनके दुष्प्रभाव अधिक विकृत होने पर शरीर के दूसरे अंगों या संपूर्ण शरीर को प्रभावित करते हैं।

उक्त पाँच तत्वों के शरीर में ग्रहण करने के लिए पाँच स्थानों की व्यवस्था है तथा इनके शरीर से बाहर निकलने के लिए भी पाँच स्थानों की व्यवस्था है। ये दस स्थान ‘दस इंद्रियों के नाम से जाने जाते हैं।

जैसे-पृथ्वी 

तत्त्व अपने ठोस रूप में (भोजन रूप में) मुख् द्वारा ग्रहण किया जाता है और अवशिष्ट के रूप में गुदा द्वारा शरीर के बाहर कर दिया जाता है। जल तत्त्व रस रूप में जिह्वा द्वारा ग्रहण किया जाता है और उपस्थ द्वारा मूत्र रूप में शरीर से बाहर कर दिया जाता है। तेजस् तत्त्व नेत्रों द्वारा ग्रहण किया जाता है और पैर के तलवों द्वारा बाहर कर दिया जाता है। वायु तत्त्व नासिका द्वारा ग्रहण किया जाता है और संचरण के कारण नासिका तथा अन्य इंद्रियों के द्वारा शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है। आकाश तत्त्व कानों के माध्यम से ग्रहण होता है और वाणी के माध्यम से शरीर से बाहर निकल जाता है।शरीर की आवश्यकता से अधिक तत्वों के शरीर में पहुँचने पर संबंधित अंगों पर अतिरिक्त कार्यभार पड़ता है। इससे इन अंगों में थकान और शिथिलता आकर अनेक रोग पैदा हो जाते हैं। ऐसी अवस्था में भोजन (पृथ्वी और जल वायु) की अधिकता के विकारों को उपवास, द्वारा, अग्नि के विकारों को व्यायाम द्वारा वायु के विकारों को प्राणायाम द्वारा तथा मानसिक विकारों को निद्रा द्वारा शांत किया जाना चाहिए।

संक्षेप में स्वास्थ्य रक्षा के लिए प्रकृति के निम्नांकित तत्त्वों का उपयोग किया जाना अपेक्षित है।

भोजन 


भोजन पूरी तरह स्वच्छ, पौष्टिक और स्वास्थ्यवर्धक होना चाहिए। पौष्टिक भोजन में स्टार्च, कार्बोहाइड्रेट, ग्लूकोज, प्रोटीन, वसा, खनिज लवण तथा विटामिंस पर्याप्त मात्रा में होने चाहिए। कार्बोहाइड्रेट के लिए अनाज, प्रोटीन के लिए दालें, ग्लूकोज के लिए मिष्ठान तथा खनिज लवणों और विटामिंस के लिए मौसम के फलों और हरी तथा अन्य सब्जियों का भरपूर मात्रा में सेवन किया जाना चाहिए।भोजन भली प्रकार पका हुआ तथा कम मसालेवाला होना चाहिए। फलों और सब्जियों का सेवन प्राकृतिक अवस्था में करना अधिक लाभदायक रहता है।भोजन ऋतु के अनुकूल होना चाहिए। इसके साथ ही अपने शरीर की प्रकृति का ज्ञान होना भी बहुत आवश्यक है। यदि आपकी प्रकृति कफ की है तो शीतल पदार्थों के प्रयोग से बचना चाहिए और कफ को दबानेवाले वात तथा पित्त कारक भोजन को प्रधानता देनी चाहिए। ऐसे ही पित्त प्रकृतिवाले व्यक्तियों को गरम तथा तेज मसाले वाले भोजन हानि पहुँचाते हैं। संतुलित भोजन के लिए मौसम के अनुसार खाद्य वस्तुओं का सेवन करना अधिक लाभदायक होता है। दोपहर के भोजन में दही, मट्ठा और रात्रि में भोजन के बाद दूध का सेवन स्वास्थ्यवर्धक है। मगर इसके विपरीत रात्रि में भूलकर भी दही का सेवन नहीं करना चाहिए। सुबह दूध पीने से भूख कम हो जाती है। भोजन निश्चित समय पर तथा भूख से कुछ कम ही करना चाहिए, ताकि पेट में अफरा आदि विकार न हों। भोजन में मात्रा से अधिक पौष्टिक पदार्थों पर ध्यान देना चाहिए। भोजन पूरी तरह चबा-चबाकर करना चाहिए, ताकि यह दाँतों द्वारा भली प्रकार पीसा जा सके और लार ग्रंथियों के साथ पाचक तत्त्व इसमें मिल सकें। इससे आँतों को अधिक श्रम नहीं करना पड़ता और भोजन भी शीघ्र पचता है।

जल

जल शरीर के लिए अत्यंत आवश्यक है। शरीर का लगभग 70 प्रतिशत भाग जल ही है शरीर में जल की कमी न हो, इसके लिए दिन भर में आठ-दस लीटर पानी अवश्य पीना चाहिए।भोजन के समय जल का विशेष ध्यान रखना चाहिए। भोजन से पहले पिया गया जल मंदाग्नि करता है, जबकि भोजन के बाद अधिक जल पीने से यह देर में पचता है। अतः भोजन के बीच-बीच में धीरे-धीरे जल पीना चाहिए। इससे भोजन के निगलने और पचने में बहुत सुविधा रहती है। प्रातः काल जल पीना स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभकारी है। भोजन के एक घंटा बाद इच्छानुसार समय-समय पर जल पीते रहना चाहिए, जिससे शरीर की आवश्यकता पूरी होती रहे और अंदर की सफाई होकर पर्याप्त मात्रा में पेशाब आता रहे। सदैव ध्यान रखना चाहिए कि जल स्वच्छ और ताजा होना चाहिए। दूषित जल से अनेक गंभीर रोग पैदा होने की आशंका बनी रहती है।

उपवास

भोजन की अधिकता अथवा निरंतर पौष्टिक भोजन करने से शरीर का पाचन तथा उत्सर्जन तंत्र थकान महसूस करने लगते हैं। अतः स्वास्थ्य की दृष्टि से सप्ताह में एक दिन उपवास करना अच्छे स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक है। उपवास से पाचन-तंत्र को तो विश्राम मिलता ही है, शरीर में एकत्रित अधिक ऊर्जा की खपत भी हो जाती है, जिससे शरीर स्वस्थ बना रहता है। उपवास के दिन यदि खाली पेट रहना संभव न हो सके तो हलका भोजन करना चाहिए तथा तरल पदार्थों पेय, फलों के रस तथा सलाद का अधिक मात्रा में सेवन करना चाहिए।

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