आयुर्वेद में षडरस चिकित्सा है महत्वपूर्ण
आयुर्वेद में षडरस चिकित्सा है महत्वपूर्ण
छः (षडरस) रस और उनके प्रभाव
शरीर की सभी धातुओं को सम रखने के लिए आहार का सर्वरसयुक्त होना आवश्यक है।
सर्वरसाभ्यासो बलकारणाम्, एकरसाभ्यासो दौर्बल्यकराणाम्।
"सदा सब रसों का सेवन सर्वोत्तम बलकारी व एक रस का सेवन सर्वाधिक दौर्बल्यजनक है।"
चरक संहिता, सूत्रस्थानम् 25.40
रस छः प्रकार के होते हैं –
मधुर या मीठा, खट्टा, खारा या नमकीन, तीखा, कड़वा व कसैला। शरीर में वात, पित्त व कफ इन त्रिदोषों की स्थिति इन षडरसों पर ही निर्भर होती है। जैसे –
स्वाद्वम्ललवणा वायुं कषायस्वादुतिक्तकाः।
जयन्ति पित्तं, श्लेष्णां कषायकटुतिक्तकाः।
'मीठा, खट्टा, व खारा रस वातशामक, कसैला, मीठा व कड़वा रस पित्तशामक और कसैला, तीखा व कड़वा रस कफनाशक है।'
चरक संहिता, सूत्रस्थानम् 1.66
इसके विपरीत तीखा, कड़वा व कसैला रस वातप्रकोपक, खट्टा, तीखा व खारा रस पित्त प्रकोपक और मीठा, खट्टा व खारा रस कफवर्धक है।
आहार में षडरसों का अनुक्रम
आहार में सामान्यतः सर्वप्रथम- मीठे व स्निग्ध, मध्य में- प्रथम खट्टे व खारे ताथ बाद में- तीखे व कड़वे एवं अंत में - कसैले व द्रवरूप पदार्थों का सेवन करना चाहिए । इसीलिए भोजन के बाद छाछ पीने का विधान है।
भोजन के पूर्व रिक्त जठर में वायु की बहुलता रहती है। भोजन में प्रथम मीठे व स्निग्ध पदार्थों का सेवन करने से वायु का शमन हो जाता है। ये पदार्थ पचने में भी भारी होते हैं। इसलिए सर्वप्रथम इनका सेवन करना उचित है। बाद में खट्टे व खारे पदार्थों का सेवन करने से शेष वात का तो शमन होता ही है, साथ ही ये पदार्थ उष्ण होने के कारण जठराग्नि को भी बढ़ाते हैं, जिससे पाचनक्रिया तीव्र होती है। तीखे पदार्थ भी पाचन में मदद करते हैं। कड़वे व कसैले पदार्थ जिह्वा, मुख तथा कंठ की शुद्धि करते हैं तथा भोजन के बाद स्वाभाविक होने वाली कफ की वृद्धि को भी नियंत्रित करते हैं।
षडरसों के गुण-कर्मः
मधुर या मीठा रसः
यह स्निग्ध, शीत, पचने में भारी तथा पित्त एवं वायु शामक है। जन्म से ही सभी को प्रिय व शरीर के लिए सात्म्य (अनुकूल) होने से बाल, वृद्ध, दुर्बल, कृश-सभी के लिए हितकर है। यह रस-रक्तादि सप्त धातुओं को बढ़ाने वाला, आयुवर्धक, अंतःकरण एवं ज्ञानेन्द्रियों को निर्मल व अपने कर्मों में निपुण बनाने वाला, बलवर्धक, पुष्टिदायक, शरीर के वर्ण व कांति को सुधारने वाला, नेत्रज्योतिवर्धक, भग्न अस्थियों को जोड़ने वाला, बालों के लिए हितकर तथा शरीर में स्फूर्ति व मन में तृप्ति लाने वाला है। कृश व दुर्बल लोगों के लिए मधुर रसयुक्त पदार्थों का सेवन विशेष हितकर है।
मधुर रसयुक्त पदार्थः दूध, घी, शहद, किशमिश, मिश्री,मधुर फलों का रस, सुवर्ण आदि।
मधुर रस के अति सेवन से हानिः मधुर रस इतना लाभदायी होते हुए भी मधुर पदार्थों का अति सेवन हितावह नहीं है। इससे कफ की वृद्धि होकर आलस्य, अति निद्रा, अरूचि, मंदाग्नि, स्थूलता, मधुमेह, रक्तवाहिनियों में अवरोध, हृदयरोग, श्वास, पेट में कृमि आदि रोग उत्पन्न होते हैं। उपवास व दीपन-पाचन औषधियों द्वारा इन्हें दूर किया जा सकता है।
अम्ल रसः
अम्ल रस पचने में हल्का, उष्ण, स्निग्ध व वातशामक है। यह भोजन में रूचि उत्पन्न करता है व विभिन्न पाचक स्रावों को बढ़ाता है। यह मल-मूत्र का सुखपूर्वक निष्कासन करने वाला, मन को उद्दीप्त करने वाला, इन्द्रियों को दृढ़ बनाने वाला व उत्साह बढ़ाने वाला है। यह रस हृदय के लिए विशेष हितकर है।
अम्ल रसयुक्त पदार्थः फालसा, आँवला, अनार, करौंदा आदि।
अम्ल रस के अति सेवन से हानिः अम्लीय पदार्थ के अति सेवन से रक्त व पित्त दूषित हो जाते हैं। परिणामतः कंठ, छाती व हृदय में जलन होने लगती है। पांडु, रक्तपित्त, अम्लपित्त जैसी व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं। फोड़े, फुंसियाँ, खुजली आदि लक्षण पैदा होते हैं। दाँत खट्टे, दृष्टि मंद तथा शरीर शिथिल हो जाता है। दुर्बल व कृश व्यक्तियों में सूजन आने लगती है। घाव तथा फोड़े पककर उनमें मवाद भर जाता है।
उपरोक्त लक्षण उत्पन्न होने पर अम्लीय पदार्थों का सेवन पूर्णतः बंद कर गेहूँ, मूँग, अंगूर, किशमिश आदि मधुर रसात्मक, पित्तशामक द्रव्यों का उपयोग करना चाहिए।
सामान्यतः अम्ल रस पित्तवर्धक है, परंतु आँवला अम्लीय होते हुए भी पित्तशामक है।
लवण रसः
यह स्निग्ध, उष्ण, तीक्ष्ण, पित्तवर्धक, वातशामक व कफ को पिघलाने वाला है। यह उत्तम दीपक, पाचक, संशोधक अर्थात् स्रोतों की शुद्धि करने वाला, मल मूत्र निस्सारक, अंगों की जकड़न, कठिनता, अवरोध व संचित दोषों को दूर कर उन्हें कोमल बनाने वाला है। इसके सेवन से पाचक स्रावों का निर्माण होता है, जिससे भोजन का सम्यक् पाचन होता है।
लवण रसयुक्त पदार्थः सभी प्रकार के नमक् (सेंधा, समुद्र आदि) व क्षार।
लवण रस के अति सेवन से हानिः लवण रस के अति सेवन से पित्त प्रकुपित होकर रक्त को दूषित करता है, जिससे बार-बार प्यास लगना, आँखों के आगे अंधेरा छाना, शरीर शिथिल हो जाना, ग्लानि, मूर्च्छा आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं। दाँत ढीले होकर गिरने लगते हैं। बाल सफेद होकर झड़ने लगते हैं। त्वचा पर झुर्रियाँ पड़ने लगती हैं तथा त्वचा का वर्ण व कांति नष्ट हो जाती है। नेत्र, कर्ण, जिह्वा आदि ज्ञानेन्द्रियों की शक्ति क्षीण हो जाती है। बल, ओज तथा रोगप्रतिकारक शक्ति का नाश होता है। शुक्रधातु पतला होने लगता है, इससे स्वप्नदोष, पुंसत्वनाश जैसी व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं, कुष्ठरोग, त्वचा के विभिन्न विकार, सूजन व उच्च रक्तचाप जैसी दूषित रक्तजन्य व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं। अधिक मात्रा में नमक का सेवन करने वाले व्यक्ति शारीरिक-मानसिक क्लेश व रोग आदि का प्रहार सहने में सक्षम नहीं होते। वे जल्दी थक जाते हैं।
उपरोक्त लक्षण उत्पन्न होने पर नमक का सेवन पूर्णतः बंद कर मधुर, कड़वे व कसैले पदार्थों का सेवन करना चाहिए।
सामान्यतः लवण रसयुक्त पदार्थ पित्त-प्रकोपक होते हैं, परंतु सेंधा नमक इसका अपवाद है। सेंधा नमक के अतिरिक्त अन्य सभी प्रकार के नमक आँखों के लिए हानिकारक है।
तीखा रसः
यह पचने में हलका, रूक्ष उष्ण व तीक्ष्ण होने के कारण वात तथा पित्त को बढ़ाने वाला व कफशामक है। यह मुखशुद्धिकर, रूचि व जठराग्नि वर्धक है। यह इन्द्रियों को निर्मल बनाता है, उनकी कार्यक्षमता बढ़ाता है तथा पेट के कृमियों का नाश करता है। यह मेद तथा शुक्रधातु का नाश करने वाला, तमोगुण बढ़ाने वाला व उत्साहहीन बनाने वाला है। यह अपने रुक्ष, उष्ण, तीक्ष्ण गुणों से रक्त की गुठलियों को पिघलाता है। रक्तवाहिनियों में से अवरोधों को हटाकर रक्तसंचरण का मार्ग खुला कर देता है। अतः तीखा रस हदयरोग में लाभदायी है।
तीखे रसयुक्त पदार्थः मिर्च, काली मिर्च, हींग, पीपर, सोंठ, अदरक, लहसुन आदि।
तीखे पदार्थों के सेवन से हानिः उष्ण तीक्ष्ण होने के कारण तीखा रस पित्त को बढ़ाता है, जिससे सर्वांगदाह, भ्रम, घबराहट, ग्लानि, कंठ, तालु व होंठों में शुष्कता, अधिक प्यास लगना आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं। वायु की वृद्धि होने से शरीर में पीड़ा होती है। उपरोक्त लक्षण उत्पन्न होने पर तीखे पदार्थ बंद कर दूध, घी आदि मधुर पदार्थों का सेवन करना चाहिए।
तीखे पदार्थ वातवर्धक व शुक्रनाशक हैं, परंतु सोंठ, पीपर व लहसुन उत्तम वातशामक व शुक्रवर्धक हैं।
कड़वा रसः
यह पचने में हलका, रुक्ष, शीत, गुणयुक्त, कफ व पित्त को सुखाने वाला तथा वातवर्धक है। कड़वा रस यकृत को शुद्ध करता है व उसकी कार्यक्षमता बढ़ाकर जठराग्नि को प्रदीप्त करता है। उत्तम आमपाचक होने से ज्वर का नाश करता है। विष, कृमि, कुष्ठ (त्वचाविकार) को नष्ट करता है। उत्तम आमपाचक होने से ज्वर का नाश करता है। विष, कृमि, कुष्ठ (त्वचाविकार) को नष्ट करता है। अतिरिक्त कफ, मांस व मेद को हटाता है, अतः मोटापा, मधुमेह, संधिवात में लाभदायी है। कड़वे पदार्थ मातृस्तन्य (माता का दूध) की विकृतियों को दूर करते हैं, कंठ, त्वचा, व्रणों की शुद्धि करते हैं।
कड़वे रसयुक्त पदार्थः मेथी, नीम, चिरायता, गिलोय, हल्दी, करेला आदि।
अरूचिकर होने के कारण कड़वे पदार्थों का सेवन नहीं के बराबर किया जाता है। इससे हम इसके लाभों से वंचित रह जाते हैं।
कड़वे रस के अति सेवन से हानिः कड़वे पदार्थ रूक्ष व वातवर्धक होने के कारण धातुओं का शोषण कर शरीर को कृश व दुर्बल बनाते हैं। इनके अति सेवन से उत्साहहीनता, ग्लानि, भ्रम, मूर्च्छा, शरीर में पीड़ा, शिर-शूल आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं। इन्हें दूर करने के लिए मधुर व स्निग्ध पदार्थों जैसे – दूध, घी आदि का सेवन करना चाहिए।
कड़वे पदार्थ वातवर्धक व शुक्रनाशक होते हैं, परंतु गिलोय कड़वी होने पर भी वातशामक व वृष्य (बल-वीर्यवर्धक) है।
कसैला रसः
यह रूक्ष, शीत, कफ व पित्तशामक तथा वातवर्धक है। यह रक्त को शुद्ध करता है। अपनी स्वाभाविक संकोचन-शक्ति के द्वारा यह स्रोतों का संकोचन व व्रणों को साफ करता है। यह संग्राही होने से अतिसार में लाभदायी है परंतु नये ज्वर में इसका उपयोग नहीं करना चाहिए।
कसैले रसयुक्त पदार्थः हरड़, कच्चा, बेलफल, कड़वे परवल, कमल आदि।
कसैले पदार्थों के अति सेवन से हानिः इनके अति सेवन से स्रोतों का संकोचन होने के कारण मुँह सूख जाना, हृदय पर भार जैसा लगना, घबराहट, मल-मूत्र का अवरोध होकर पेट में वायु भर जाना, अंगों में जकड़न व वेदना आदि वातविकार उत्पन्न होते हैं।
हरड़ कसैली होने पर भी उष्ण व मल निस्सारक होने के कारण उपरोक्त व्याधिजन्य लक्षण उत्पन्न नहीं करती।
भोजन में रसों का स्थान महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि जिन आहार-द्रव्यों का हम नित्य सेवन करते हैं वे रसप्रधान हैं। इन द्रव्यों के गुण-अवगुणों का ज्ञान स्वास्थ्य के रक्षण और रोगों के निवारण के लिए परम उपयोगी है।
दोषों का प्रकोप व शमन करने वाले रस
दोष | प्रकोपक रस | शामक रस |
कफ | मीठा, खट्टा, खारा | कड़वा, तीखा, कसैला |
पित्त | तीखा, खट्टा, खारा | कड़वा, कसैला, मीठा |
वात | कड़वा, तीखा, कसैला | मीठा, खट्टा, खारा |
रस | श्रेष्ठ द्रव्य |
मीठा | गाय का घी |
खट्टा | आँवला |
खारा | सैंधव नमक |
तीखा | पीपर |
कड़वा | कड़वे परवल |
कसैला | शहद |
(१) मधुर ------कफ बढ़ाता है
(२) अम्ल -----कफ , पित्त बढ़ाता है
(३) लवण ---- पित्त बढ़ाता है
(४) कटु ------ पित्त बढ़ाता है
(५) तिक्त ----- वात बढ़ती है
(६) कषाय -----वात बढ़ती है
मधुर = मीठा
अम्ल = खट्टा,तेज जलन जैसे लहसुन
लवण = नमकीन
कटु = चरपरा
तिक्त = कडुवा
कषाय = कसैला
देखो हर चीज के नाम कितना चिंतन से रखे हैं - उनका गुण धर्म समझाते हुए
अजवायन = अज वायु न - वायु उतपन्न न होने दे -- अज वाय न
तो वायु परेशान करे तो अजवायन की सहायता लो - वायुकारक दाल सब्जी में अजवायन का छौंक दो
धनिया = दाह नहीं आ - दाहनीआ - धनिया - और सत्य है
धनिया दाह - गर्मी को रोकता है - पित्त,गर्मी परेशान करे तो धनिया लो। यह त्रिदोष नाशक है। अर्थात सब्जी उष्ण प्रकृति की बन रही है तो अधिक धनिया डाल के उसे ठंडी प्रकृति की कर लो।
हल्दी = हल दाह आई = यह थोड़ी सी दाह देती है
लहसुन = लौ है सुन - अरे इसमें लौ है
जीरा = जरा - यह जरा ,जला देता है - अग्नि देता है
जैसे किसी को मधुमेह है तो मेंथीदाना लाभ देता है - भीगी मेंथी कसैली होती है और मधुमेह रोगी मीठे रस से परेशान है - तो मेंथी मीठे रस को कम करती है इससे रोगी को राहत मिलती है अंगों को कुछ माह राहत मिली रहे तो रोग नष्ट हो जाता है।
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