योग और योग यात्रा शब्द से स्वरुप तक


योग और योग यात्रा शब्द से स्वरुप तक

 योग शब्द की व्यापकता उसके असल सत्य को जानने के बाद ही समझा जा सकता है, योग जहाँ विकृति मुक्त शरीर है वहीं सजग और सकारात्मक मन भी है जहाँ पर सिर्फ और सिर्फ पवित्रता और शुद्धता का ही दर्शन किया जा सकता है | हमारी मानसिक विकृति ही हमारे शरीर को बीमार करने का कारण बनती है अन्यथा हम पूरी तरह से पवित्र और शुद्ध तथा स्वस्थ ही होते हैं | हमारे चित्त की शुद्धता और स्वस्थता को प्रभावित करने वाली हमारी इन्द्रियां हम जिनके वशीभूत होकर उनके अनुरूप आचरण करने पर विवश हो जाते हैं यदि हम अपनी इन्द्रिय संयम को समझें उनपर पर लगाम लगाकर अपनी जीवन शैली को सही दिशा और दशा के साथ अपने जीवन को सकारात्मक उर्जा के साथ आगे ले जायें यथावत उनको अंतर्मुखी बनाने का प्रयत्न किया जाय उनके बाह्य सुखों की अनुभूति के बजाय आन्तरिक सुखों को महसूस कर आत्म संयम कर जीवन को शुद्ध सात्विक चरमोत्कर्ष तक ले जाकर आत्मिक सुख की अनुभूति की जा सकती है |

यह आत्मिक सुख की अनुभूति ही योग का मार्ग है यहीं से आगे बढ़ते हुए ही उत्तम स्वास्थय, सजग और सक्रिय चेतना तथा आत्मिक आनंदानुभूति वाला शुकून न कुछ खोने का गम न कुछ पाने की ख़ुशी एकनिष्ठ ईश्वर के प्रति पूर्ण रूप से सजग और चेतन, श्रृष्टि का एक - एक तिनका उसी परमात्मा से रचा - बसा और रमा हुआ प्रतीत होने लगता है | हमारी आत्मा ही उस परमपिता परमात्मा का साक्षात् स्वरूप का पर्याय बन उठती है | 

एकाकार की यही स्थिति हमारी समाधि का कारण बन जाती है और हम घोर आनंदानुभूति के गहरे सागर में उतर जातें है शायद यही योग है ! योग को आजकल कुछ आसन या कसरत कहने वालों को यह समझना चाहिए कि योग को महर्षि पतंजलि के योग सूत्र में आष्टांग योग में योग के आठ अंग क्रमशः - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धरणा, ध्यान, समाधि के रूप में निरुपित किया है जिसका विस्तार से वर्णन एक सामान्य जन को योग तक पहुँचने के लिए एक पथ प्रदर्शक के रूप में कार्य करता है |


करन बहादुर (योगिराज- करनदेव )

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