आष्टांग योग के नियम लाभ एवं महत्व यम-नियम से सहस्रार तक The rules and advantages of Ashtanga Yoga, from Yama-Niyama to Sahasrara



योग व अष्टांग योग

जिस प्रकार गणित की संख्याओं को जोड़ने के लिए ‘योग’ शब्द का प्रयोग किया जाता है ठीक उसी प्रकार आध्यात्म की भाषा में मानव के लिए उसकी भिभिन्न शारीरिक , मानसिक , व्यावहारिक , पारिवारिक तथा राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय तथा अखिल ब्रांभाण्ड के सम्मिलन की स्थिति के लिए ‘योग’ शब्द का प्रयोग किया जाता है |  महर्षि का प्रसिद्ध ग्रंथ पातंजल योग दर्शन के अनुसार महर्षि पंतजलि ने आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की क्रिया को आठ भागों में बांट दिया है। यही क्रिया अष्टांग योग के नाम से प्रसिद्ध है।

आत्मा में बेहद बिखराव (विक्षेप) के  कारण वह परमात्मा जो आत्मा में भी व्याप्त है यह मानव शरीर उस की अनुभूति नहीं कर पाता। या यह भी कहा जा सकता है कि अपने विक्षेपों (बिखराव) के समाप्त होने पर आत्मा स्वत: ही परमात्मा को पा लेता है। आष्टांग योग के आठों अंगों का उद्देश्य आत्मा के विक्षेपों को दूर करना तथा शरीर में निर्विकारी भाव की स्थापना ही है। परमात्मा को प्राप्त करने का अष्टांग योग से श्रेष्ठ अन्य कोई भी मार्ग नहीं है । अष्टांग योग के पहले दो अंग यम और नियम हमारे संसारिक व्यवहार में सिद्धान्तिक एकरूपता लाते हैं जिसको हमने शारीरिक , मानसिक , व्यावहारिक , पारिवारिक तथा राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय योग तथा अन्य छ: अंगों को अखिल ब्रांभाण्ड के सम्मिलन की स्थिति के लिए ‘योग’ शब्द को आत्मा के विस्तार तथा विक्षेपों के अंतर्विरोध का आधार माना है ।

महर्षि पंतजलि द्वारा वर्णित योग के आठ अंगो के क्रम का भी अत्यन्त महत्त्व है। आष्टांग योग का हर अंग आत्मा तथा शरीर के विशिष्ट विक्षेपों को दूर कर ऊर्जा देने का कार्य करता है परन्तु तभी, जब उसके पहले के अंग सिद्ध कर लिए गए हों। उदाहरणार्थ यम और नियम को सिद्ध किए बगैर आसन को सिद्ध नहीं किया जा सकता। सभी मतों के मानने वाले इस बात को मानते हैं कि असत्य, हिंसा आदि (सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्राचर्य और अपरिग्रह, अष्टांग योग के पहले अंग-यम के विभाग हैं) की राह पर चलने वाले ईश्वर को कभी नहीं पास करते। यह इस बात की पुष्टि ही है कि ईश्वर को पाने का अष्टांग योग एक मात्र रास्ता है।



आष्टांग योग के आठ नियम कुछ निम्न प्रकार हैं


  1. यम
  2. नियम 
  3. आसान 
  4. प्राणायाम
  5. प्रत्याहार 
  6. धारणा 
  7. ध्यान 
  8. समाधि

(1) यम के पांच विभाग है

(क) अहिंसा (ख) सत्य (ग) अस्तेय (घ) ब्रह्मचर्य (ड) अपरिग्रह

(क) अहिंसा

संसार में यह मान्यता है कि किसी को कष्ट, पीड़ा व दु:ख देना ही हिंसा है। इसके विपरीत सभी के प्रति हित एवं सुख का भाव रखना एवं सदैव हिंसा से बचे रहना ही अहिंसा है। इस मान्यता को स्वीकार किया जाये तो संसार में ऐसा कोर्इ व्यक्ति नहीं है, जो अन्यों को कष्ट नहीं देता है। ईश्वर कर्मफल प्रदाता होने से संसार में सर्वाधिक कष्ट देता है। क्या इससे ईश्वर हिंसक हो जाता है ? वेदों में ईश्वर को पूर्ण अहिंसक स्वीकारा है। माता-पिता, शिक्षक, अधिकारी आदि सुधारने के लिए हमारी त्रुटियों पर दण्ड देते हुए हमें कष्ट देते हैं, क्या उनका यह कर्म हिंसा हो जायेगा ?

वेद व ऋषियों का मन्तव्य यही कहता है कि, हिंसा व अहिंसा अन्याय व न्याय पर खड़ी है। न्याय पूर्वक दण्ड-कष्ट देना भी अहिंसा है व अन्याय पूर्वक पुरस्कार-सुख देना भी हिंसा है।

हिंसक प्रवृति वाले मनुष्य अपनी आत्मग्लानि, असन्तोष, अतृपृत, भय आदि को दबाने के लिए आत्मा को प्रसन्न करने का प्रयास करते रहते हैं। उनका यह प्रयास यह भी प्रकट करता है कि उनकी आत्मा में छुपा डर उनको बार-बार प्रेरित करता है कुछ दान-पुण्य करो, जिससे हिंसा से मिलने वाले भयंकर दण्ड में कुछ कमी हो जाए। इसी कारण वे हिंसक व्यक्ति मंदिरों में, ब्राह्मणों में, आश्रमों में, मठों में तरह-तरह का दान कर के कुछ राहत की सांस लेते हैं। पर वे यह नहीं जान पाते हैं कि किया हुआ पाप कभी कम नहीं होता, चाहे कितना ही पुण्य करो। पुण्य का फल पुण्य व पाप का फल पाप के रूप में ही मिलता है।

यहां एक महत्त्वपूर्ण तथ्य जिसके विषय में आज समाज में भ्रान्तिपूर्ण माहौल है पर प्रकाश डालना आवश्यक है। स्वयं हिंसा न कर दूसरों द्वारा हिंसा किए जाने को मूक द्रष्टा बन देखते रहना भी हिंसा ही है। हिंसा का मूल ‘अन्याय’ है। दूसरो पर होते अन्याय का उचित प्रतिरोध न करना हिंसा का समर्थन करना ही है। इसलिए यह आवश्यक है कि अहिंसा का व्रत लेने वाला व्यक्ति स्वंय हिंसा न करने के साथ-साथ दूसरों द्वारा हिंसा किए जाने के विरोध में आवाज़ भी उठाए। हाँ, इसका दूसरों द्वारा हिंसा किए जाने के विरोध में आवाज़ उठाना उतना ही सार्थक होगा जितना वह स्वंय दूसरों के प्रति हिंसा नहीं करता होगा।



(ख) सत्य

जो चीज़ जैसी है उसे वैसा ही जानना व मानना सत्य कहलाता है। उदाहरण के तौर पर सांप को सांप जानना व मानना सत्य कहलाएगा और सांप को रस्सी जानना व अन्यथा रस्सी को सांप जानना असत्य कहलाता है। साधरणतया यह कहा जाता है कि जिस झूठ से किसी का भला होता हो उसे बोलना कोर्इ गलत नहीं। यह ठीक नहीं। हमें सदा अपनी वाणी से ठीक वैसी ही बात करनी चाहिए जैसी कि हमारी आत्मा में किसी घटना अथवा वस्तु के बारे में जानकारी हो।

कहा गया है — सत्य बोलो प्रिय बोलो। ऐसा बहुत कम होता है कि कोई विषय सत्य भी हो और अप्रिय भी न हो। ऐसे समय में स्वयं का आत्मा ही निर्णायक होता है कि अप्रिय सत्य को बोला जाए या ना। हां, यदि किसी को प्रिय रूप में बोला सत्य भी कठोर लगता है तो यह उसका दोष है। कुछ विद्वान ऐसा भी मानते हैं कि अपवाद स्वरूप झूठ भी बोला जा सकता है परन्तु यह नितान्त आवश्यक है कि झूठ बोलने वाले की मनोवृति सात्विक हो। इस बात का कि- अपवाद रूप में किसी की भलाई के लिए झूठ बोल लेना चाहिए, सहारा लेकर हम साधारण परिस्थितियों में भी अपने आप को झूठ बोलने से नहीं रोक पाते। साधारण परिस्थितियों में हमें सत्य ही बोलना चाहिए। राष्ट्र हित व विश्व हित के मामलों को ही केवल असाधारण परिस्थितियां माना जाना चाहिए।

वर्तमान में सत्याचरण करने से हानि अधिक दिखाई देती है। इसके पीछे कारण है-भौतिक पदार्थों की हानि को अपनी आत्मा की हानि समझना।

झूठ बोलने वाला कभी भी निडर नहीं हो सकता। हम डरते हुए कभी भी एकाग्र नहीं हो सकते। अत: झूठ बोलने या मिथ्या आचरण करने वाला व्यक्ति पूर्ण एकाग्र नहीं बन सकता। हम पूर्ण एकाग्रता के बिना पूर्ण बुद्धिमान नहीं बन सकते हैं। सत्य का पालन अहिंसा की सिद्धि के लिए ही किया जाता है। झूठ बोलने से भी हिंसा होती है। 

(ग) अस्तेय

अस्तेय का शाब्दिक अर्थ है चोरी न करना। किसी दूसरे की वस्तु को पाने की इच्छा करना मन द्वारा की गई चोरी है। शरीर से अथवा वाणी से तो दूर, मन से भी चोरी न करना। किसी की कार को देखकर उसे पाने की इच्छा करना, किसी सुन्दर फूल को देखकर उसे पाने की चाह करना आदि चोरी ही तो है। जैसे कपड़ा बेचने वाला, ग्राहक के सामने ही उसे धोखा देता है। ग्राहक पांच मीटर कपड़े का मूल्य चुकाकर उतने कपड़े का स्वामी बन जाता है, किन्तु दुकानदार माप में धोखा देकर उसे पांच मीटर से कम कपड़ा देता है। वह उसी के सामने उसके द्रव्य (यहां कपड़ा) का चालाकी से हरण कर लेता है। मोटे तौर पर देखने से लगता है कि हम तो चोर नहीं, हम चोरी नहीं करते। इसे सूक्ष्मता से देखने पर साफ दीखता है कि हम कितना अस्तेय का पालन करते हैं।



(घ) ब्रह्मचर्य

शरीर के सर्वविध सामर्थ्यों ( प्रकृति द्वारा प्रदत्त शारीरिक इंद्रिय चेतना का संयमित सुरक्षा ) की संयम पूर्वक रक्षा करने को ब्रह्मचर्य कहते हैं। आधुनिक ढंग से जीवन व्यतीत करने वाले अनेकों की धारणा है कि वीर्य की रक्षा करना पागलपन है। अत: वे अपने शरीर को वीर्य ही न बना लेते हैं। शरीर को नाजुक, कमज़ोर, रोग ग्रस्त बना लेते हैं। शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति को घटाते हैं।

इन्द्रियों पर जितना संयम रखते हैं उतना ही ब्रह्मचर्य के पालन में सरलता रहती है। इन्द्रियों की चंचलता ब्रह्मचर्य के पालन में बाधक है। अपने लक्ष्य के प्रति सजग रहते हुए सदा पुरुषार्थी रहने से ब्रह्मचर्य के पालन में सहायता मिलती है। महापुरुषों, वीरों, ऋषियों, आदर्श पुरूषों के चरित्र को सदा समक्ष रखना चाहिए। मिथ्या-ज्ञान (अशुद्ध-ज्ञान) का नाश करते हुए शुद्ध-पवित्र-सूक्ष्म विवेक को प्राप्त करने से वीर्य रक्षा में सहायता मिलती है।

ब्रह्मचर्य के विपरीत है व्याभिचार। व्याभिचार से भी वैसे ही हिंसा होती है, जैसे झूठ से व चोरी से होती है।

(ड)अपरिग्रह

मन, वाणी व शरीर से अनावश्यक वस्तुओं व अनावश्यक विचारों का संग्रह न करने को अपरिग्रह कहते हैं।

अपरिग्रह का यह अभिप्राय बिलकुल नही है कि राष्ट्रपति व चपरासी के लिए वस्त्र आदि एक जैसे व समान मात्रा में हो।
हम जितने अधिक साधनों को बढ़ाते जायेंगे, उतने ही अधिक हिंसा के भागी बनते जायेंगे। उदाहरणार्थ कपास की खेती से वस्त्र निर्माण होने तक की प्रक्रिया में अनेक जीव पीड़ित होते व मरते हैं। परन्तु हमें आवश्यकता के अनुसार कुछ न कुछ साधन तो चाहिए। हम मात्र उतने ही साधनों का प्रयोग करें। ऐसा न हो कि हमारे कारण दूसरे अपनी मूलभूत आवश्यकताओं से भी वंचित रह जायें।
हमारी अधिक संग्रह करने की भावना से अनावश्यक उत्पादन बढ़ता जा रहा है। जिससे पन्च भूतों (पृथ्वी, जल आदि) की हाऩि होती जा रही है। ऐेसा न हो कि हम क्षणिक सुख के लिए विपुल मात्रा में हिंसा कर बैठें।

योग का दूसरा अंग — नियम



नियम के पाँच विभाग हैं :-
(क) शौच, (ख) संतोष, (ग) तप, (घ) स्वाध्याय, (ड) ईश्वर-प्रणिधान

(क) शौच

शरीर व मन की शुद्धि को शौच कहा जाता है। स्नान, वस्त्र, खान-पान आदि से शरीर को स्वच्छ रखा जाता है। विद्या , ज्ञान, सत्संग, संयम, धर्म आदि और धनोपार्जन को पवित्र रखने के उपायों से मन की शुद्धि होती है। मन की शुद्धि शरीर की शुद्धि से अधिक महत्त्वपूर्ण है परन्तु मानव जीवन के अधिक साधन-समय, धन आदि शरीर की शुद्धि में ही लगाए जा रहें हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु व आकाश की शुद्धि से मनुष्य की शुद्धि और इनकी अशुद्धि से मनुष्य की अशुद्धि होती है। सभी शुद्धियों में धन की शुद्धि बड़ी मानी गई है। इसलिए यहीं से शुद्धि का प्रारम्भ करना चाहिए। जिस मनुष्य का धन अशुद्ध है उसका आहार, ज्ञान व कर्म भी अशुद्ध ही होगा। उसके जीवन में तपस्या नहीं होगी व उसे समय की महत्ता का बोध नहीं होगा व आन्तरिक शुद्धि का पालन करने से अहिंसा बलवान बनती है, जिससे शुद्धि का पालन करने वाले व्यक्ति के साथ उठने-बैठने व अन्य प्रकार के व्यवहारों में सबको प्रसन्नता मिलती है।

(ख) संतोष

अपनी योग्यता व अधिकार के अनुरूप अपनी शक्ति, सामर्थ्य , ज्ञान-विज्ञान तथा उपलब्ध साधनों द्वारा पूर्ण पुरूषार्थ करने से प्राप्त फल में प्रसन्न रहने को संतोष कहते हैं। असंतोष का मूल लोभ है। यदि व्यक्ति संतोष का पालन करता है यानि अपनी तृष्णा को, लोभ को समाप्त कर देता है तो जो सुख मिलता है उसके सामने संसार का सारा का सारा सुख सोलहवां भाग भी नहीं होता। जितना पास है या किसी परिस्थिति से जितना मिलता है उससे अधिक की इच्छा न करना ही संतोष है | अपने द्वारा निर्धारित फल को प्राप्त न करने पर हताश-निराश न होकर, हाय-हाय न कहते हुए अपनी योग्यता, सामर्थ्य, बल, ज्ञान-विज्ञान व साधनों को और अधिक बढ़ाकर और अधिक पुरूषार्थ करके अधिक फल को प्राप्त करने की चेष्टा सतत् करनी चाहिए। अनेक बार व्यक्ति अपने सामर्थ्य व योग्यताओं को न पहचानते हुए कम पुरूषार्थ करके संतोष कर लेता है, जो आत्म दर्शन में अत्यन्त बाधक है। संतोष के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि व्यक्ति ईश्वर के न्याय पर पूर्ण विश्वास करे। 

(ग) तप

जीवन के लक्ष्य को पूरा करने के लिए हानि-लाभ, सुख-दु:ख, भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, मान-अपमान आदि द्वन्द्वों को शान्ति व धैर्य से सहन करने को तप कहते हैं।

आज हम स्वयं को इतना कमजोर कर चुके हैं कि बिना तकिये, बिस्तर, वाहन (कार आदि), पंखा, कूलर, ए.सी. कमरा आदि के नहीं रह पाते हैं। अनेक बार हम कुछ भौतिक पदार्थों के लिए आत्म-तत्व को ही छोड़ देते हैं। जैसे ही विषय हमारे सामने उपस्थित होता है, हम चाहते हुए या न चाहते हुए सब कुछ भूलकर के उसके साथ जुड़ जाते हैं।, उसी में लग जाते हैं, छोड़ नहीं पाते, त्याग नहीं कर पाते। जब कोई मनोरम दृष्य सामने आता है तो उसको देखे बिना रह नहीं पाते, उसका त्याग नहीं कर पाते।




(घ) स्वाध्याय

भौतिक-विद्या व आध्यात्मिक-विद्या दोनों का अध्ययन करना स्वाध्याय कहलाता है। केवल भौतिक या केवल आध्यात्मिक विद्या से कोई भी अपने लक्ष्य को पूरा नहीं कर सकता है। अत: दोनों का समन्वय होना अति आवश्यक है।

वेदों में दोनों भौतिक विधा व अध्यात्मिक विद्या है। विद्वान लोग वेदों के अध्ययन को ही स्वाध्याय मानते हैं। कुछ विद्वान लोग ऋषि कृत ग्रन्थों (व्याकरण, निरुक्त आदि, दर्शन शास्त्र, ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिष्द आदि) के अध्ययन को भी स्वाध्याय के अन्तर्गत लेते हैं। स्वाध्याय का पालन करने से मूर्खतारूपी अविधा से युक्त होकर की जाने वाली हिंसा का अन्त होता है और हमें मुक्ति-पथ पर आगे बढ़ने में सहायता मिलती है।

(ड) ईश्वर प्रणिधान

ईश्वर प्रणिधान का अर्थ है — समर्पण करना ( ईश्वर के प्रति तटत्स्थ , अटूट , अडिग विश्वास )।

लोक में हम माता — पिता, अध्यापक, अधिकारी आदि के प्रति समर्पण की भावना की बात करते हैं। इसका अर्थ यहीं लिया जाता है कि जैसा माता-पिता, अध्यापक, अधिकारी आदि कहें वैसा ही करना। जिसके प्रति आप समर्पित हो रहें है। उसकी आज्ञा का पालन करना ही समर्पण हैं। इसलिए र्इश्वर प्रणिधान के लिए यह आवश्यक है कि हम ईश्वरीय आज्ञायों के बारे में जानें। ईश्वर की आज्ञा के अनुसार चलना होगा तो हम हर वक्त ईश्वर को सामने रखेंगे और अपनी वाणी, सोच व कर्मों को अच्छी ओर लगाएंगे। परन्तु ईश्वरिय आज्ञाओं का पालन करने में उनसे मिलने वाले फल की इच्छा नही करनी चाहिए। फल को न चाहने का अर्थ क्या है ? जो कुछ भी कार्य करने पर मिलता है-जड़ पदार्थ-उसको ही अंतिम फल समझ कर कार्य करें, तो उससे आत्मा को पूर्ण तृप्ति नहीं मिलती। फल ऐसा चाहो जिससे आत्मा की अभिलाषा की पूर्ति हो सके। उसकी पूर्ति होती है ईश्वरिय आनन्द को पाने से। कर्मों को जड़ पदार्थों को प्राप्त करने की इच्छा से न करके ईश्वरीय आनन्द को प्राप्त करने के लिए करना चाहिए। श्रीमदभगवद् गीता में वर्णित निष्काम भाव से कर्म करने का भी यहीं अभिप्राय है।

योग का तीसरा अंग — आसन

आज आसन को योग का पर्याय और आसन का मुख्य उद्देश्य शरीर को रोग मुक्त करना माना जाने लगा है।

आसन करने पर गौण रूप से शारीरिक लाभ भी होते हैं। परन्तु आसन का मुख्य उद्देश्य प्राणायाम, धारणा, ध्यान और समाधि हैं। जिस शारीरिक मुद्रा में स्थिरता के साथ लम्बे समय तक सुख पूर्वक बैठा जा सके उसे आसन कहा गया है। शरीर की स्थिति, अवस्था व साम्थर्य को ध्यान में रखते हुए भिन्न-भिन्न आसनों की चर्चा की गई है। चलते-फिरते, उछलते — कूदते, नाचते-गाते हुए ध्यान नहीं हो सकता। ध्यान के लिए बैठना आवश्यक है। मन को स्थिर ईश्वर में लगाना तभी सम्भव है जब हम अपने शरीर को स्थिर अथवा अचल करें। अचलता से ही पूर्ण एकाग्रता मिलती है। उछलते, कूदते-नाचते हुए मन को पूरा रोकना, पूर्ण एकाग्र करना सम्भव ही नहीं है।

योगी खाते-पीते, उठते-बैठते, चलते-फिरते, लेटे हुए, बात करते, किसी भी कार्य को करते हुए सतत् ईश्वर की अनुभूति बनाए रखते हैं। ईश्वर की उपस्थिति में ही समस्त कार्यों को करते हैं। इसे ही ईश्वर-प्रणिधान कहते हैं, यह समाधि नहीं है। 


योग का चौथा अंग — प्राणायाम

प्राणायाम से ज्ञान को आच्छादित रखने वाला अज्ञान नष्ट होता है । ज्ञान के उत्कृष्टतम स्तर से वैराग्य उपजता है। कपाल-भाति, अनुलोम-विलोम आदि प्राणायाम नहीं बल्कि श्वसन क्रियाएं हैं । ये क्रियाएं हमें अनेको रोगों से बचा सकने में सक्ष्म है परन्तु इन्हें अपने आहार-विहार को सूक्ष्मता से जानने-समझने व जटिल रोगों में आयुर्वेद की सहायता लेने का विकल्प समझना हमारी भूल होगी। प्राणायाम सबके लिए महत्त्वपूर्ण व आवश्यक क्रिया है। प्राणायाम में प्राणों को रोका जाता है प्राणायाम चार ही है जो पतंजलि ऋषि ने अपनी अमर कृति योग दर्शन में बताए हैं।

पहला — फेफड़ों में स्थित प्राण को बाहर निकाल कर बाहर ही यथा साम्थर्य रोकना और घबराहट होने पर बाहर के प्राण (वायु) को अन्दर ले लेना।

दूसरा — बाहर के प्राण को अन्दर (फेफड़ों में) लेकर अन्दर ही रोके रखना और घबराहट होने पर रोके हुए प्राण (वायु) को बाहर निकाल देना।

तीसरा — प्राण को जहां का तहां (अन्दर का अन्दर व बाहर का बाहर) रोक देना। और घबराहट होने पर प्राणों को सामान्य चलने देना।

चौथा — यह प्राणायाम पहले व दूसरे प्राणायाम को जोड़ करके किया जाता है। पहले तीनों प्राणायामों में वर्षों के अभ्यास के पश्चात कुशलता प्राप्त करके ही इस प्राणायाम को किया जाता है।

प्राणों को अधिक देर तक रोकने में शक्ति न लगाकर विधि में शक्ति लगायें और कुशलता के प्रति ध्यान दें। प्राणायाम की विधि को अच्छे प्रशिक्षक से सीखना चाहिए। ज्ञान तो सारा पुस्तकादि साधनों में भरा पड़ा है, किन्तु उसे व्यवस्थित करके हमारे मस्तिष्क में तो अध्यापक ही बिठा सकता है।

प्राणायाम हमारे शरीर के सभी तंत्रों को तो व्यवस्थित रखता ही है इससे हमारी बुद्धि भी अति सूक्ष्म होकर मुश्किल विषयों को भी शीघ्रता से ग्रहण करने में सक्षम हो जाती है। प्राणायाम हमारे शारीरिक और बौधिक विकास के साथ-साथ हमारी अध्यात्मिक उन्नति में भी अत्यन्त सहायक है

प्राणायाम द्वारा हमारे श्वसन तंत्र की कार्य क्षमता बढ़ती है। यदि मात्र प्राणायाम काल को दृष्टि गत रखें तो उस समय अधिक प्राण का ग्रहण नहीं होता। प्राणायाम के समय तो श्वास-प्रश्वास को रोक दिया जाता है, फलत: वायु की पूर्ति कम होती है, किन्तु प्राणायाम से फेफड़ों में वह क्षमता उत्पन्न होती है कि व्यक्ति सम्पूर्ण दिन में अच्छी तरह श्वास-प्रश्वास कर पाता है।

प्राणों के स्थिर होते ही मन स्थिर हो जाता है। स्थिर हुए मन को कहां लगायें ? पैसे में मन को लगायें तो पैसा मिलता है। परमात्मा में लगाने से ईश्वर साक्षात्कार हो जाता है।

हम प्रतिदिन न जाने कितनी बार अपने प्राणों को वश में रखते हैं। इसके साथ ही मन भी उतनी ही बार वश में होता रहता है इस स्थिर हुए मन को हम संसार में लगाकर संसारिक सुखों को प्राप्त करते हैं।

जो यह कहता है कि मन वश में नहीं आता तो इसका अर्थ यह है कि आत्मा या परमात्मा में उसकी रूचि या श्रद्धा नहीं है।


योग का पांचवा अंग — प्रत्याहार

आंख, कान, नासिका आदि दसों इन्द्रियों को ससांर के विषयों से हटाकर मन के साथ-साथ रोक (बांध) देने को प्रत्याहार कहते हैं।

प्रत्याहार का मोटा स्वरूप है संयम रखना, इन्द्रियों पर संयम रखना। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति मीठा बहुत खाता है कुछ समय बाद वह अपनी मीठा खाने की आदत में तो संयम ले आता है परन्तु अब उसकी प्रवृति नमकीन खाने में हो जाती है। यह कहा जा सकता है कि वह पहले भी और अब भी अपनी रसना इन्द्रिय पर संयम रख पाने में असफल रहा। उसने मधुर रस को काबू करने का प्रयत्न किया तो उसकी इन्द्रिय दूसरे रस में लग गई। इसी भांति अगर कोई व्यक्ति अपनी एक इन्द्रिय को संयमित कर लेता है तो वह अन्य इन्द्रिय के विषय (देखना, सुनना, सूंघना, स्वाद लेना, स्पर्ष करना आदि) में और अधिक आनन्द लेने लगता है। अगर एक इन्द्रिय को रोकने में ही बड़ी कठिनाई है तो पाँचों ज्ञानोन्द्रियों को रोकना तो बहुत कठिन हो जायेगा।

इनको जीतना के लिए तपस्या करनी पड़ती है और तपस्या के पीछे त्याग की भावना लानी पड़ती है। कैसे हमें अपनी इन्द्रियों को वश में रखना है इस बात को प्रत्याहार में समझाया गया है। एक को रोकते हैं तो दूसरी इन्द्रिय तेज हो जाती है। दूसरी को रोकें तो तीसरी, तीसरी को रोकें तो चौथी, तो पाँचों ज्ञानेनिद्रयों को कैसे रोकें ? इसके लिए एक बहुत अच्छा उदाहरण देकर हमें समझाया जाता है जैसे- जब रानी मक्खी कहीं जाकर बैठ जाती है तो उसके इर्द-गिर्द सारी मक्खियाँ बैठ जाती हैं। उसी प्रकार से हमारे शरीर के अन्दर मन है। वह रानी मक्खी है और बाकी इन्द्रियाँ बाकी मक्खियाँ हैं। संसार में से उस रानी मक्खी को हटाकर भगवान में बिठा दो। फिर यह अनियंत्रित देखना, सूंघना व छूना आदि सब बन्द हो जायेंगे।

प्रत्याहार की सिद्धि के बिना हम अपने मन को पूर्णत्या परमात्मा में नहीं लगा सकते।

योग का छठा अंग — धारणा

अपने मन को अपनी इच्छा से अपने ही शरीर के अन्दर किसी एक स्थान में बांधने, रोकने या टिका देने को धारणा कहते हैं।

वैसे तो शरीर में मन को टिकाने के मुख्य स्थान मस्तक, भ्रूमध्य, नाक का अग्रभाग, जिह्वा का अग्रभाग, कण्ठ, हृदय, नाभि आदि हैं परन्तु इनमें से सर्वोत्तम स्थान हृदय प्रदेश को माना गया है। हृदय प्रदेश का अभिप्राय शरीर के हृदय नामक अंग के स्थान से न हो कर छाती के बीचों बीच जो गड्डा होता है उससे है।

जहां धारणा की जाती है वहीं ध्यान करने का विधान है। ध्यान के बाद समाधि के माध्यम से आत्मा प्रभु का दर्शन करता है और दर्शन वहीं हो सकता है जहां आत्मा और प्रभु दोनों उपस्थित हों। प्रभु तो शरीर के अन्दर भी है और बाहर भी परन्तु आत्मा केवल शरीर के अन्दर ही विद्यमान हैं।

निम्नलिखित कारणों से प्राय: हम मन को लम्बे समय तक एक स्थान पर नहीं टिका पाते -

  • मन जड़ है को भूले रहना।
  • भोजन में सात्विकता की कमी।
  • संसारिक पदार्थों व संसारिक-संबंन्धों में मोह रहना
  •  ईश्वर कण — कण में व्याप्त है को भूले रहना
  • बार-बार मन को टिकाकर रखने का संकल्प नहीं करना।
  • मन के शान्त भाव को भुलाकर उसे चंचल मानना।
बहुत से योग साधक बिना धारणा बनाए ध्यान करते रहते हैं। जिससे मन की स्थिरता नहीं बन पाने से भी भटकाव अधिक होने लगता है।
जितनी मात्रा में हमने योग के पहले पांच अंगो को सिद्ध किया होता है। उसी अनुपात में हमें धारणा में सफलता मिलती है। धारणा के महत्त्व व आवश्यकता को निम्नलिखित उदाहरण से समझाया जा सकता है। जिस तरह किसी लक्ष्य पर बन्दूक से निशाना साधने के लिए बन्दूक की स्थिरता परमावश्यक है। ठीक उसी तरह ईश्वर पर निशाना लगाने (ईश्वर को पाने) के लिए हमारे मन को एक स्थान पर टिका देना अति आवश्यक है।


योग का सातवां अंग — ध्यान

प्राय: मनुष्य अपने दैनिक कार्यों में इतना व्यस्त रहता है कि उसे यह भी बोध नहीं रहता कि उसे जीवन का अनुपम कार्य ध्यान करना है।

ध्यान के लिए सर्वोत्तम समय सुबह चार बजे के आस-पास है। ध्यान की प्रक्रिया के अन्तर्गत स्थिरता व सुख पूर्वक बैठकर, आँखे कोमलता से बंद कर, दसों यम-नियमों का चिन्तन करते हुए यह अवलोकन करें कि आप पिछले दिन अपने व्यवहार को उनके अनुरूप कितना चला पाएं हैं। तत्पश्चात मन को निर्मल करने के लिए प्राणायाम करें। उसके पश्चात अपने मन को शरीर के अन्दर किसी स्थान पर ( अंदर की आँखों से देखें-धारणा ) टिका कर स्वयं के अनश्वर चेतन स्वरूप होने व आपसे भिन्न इस शरीर के नश्वर होने पर विचार करें। ईश्वर की सर्वत्र विद्यमानता को महसूस करते हुए अनुभव करें कि आप प्रभु में हैं और प्रभु आप में हैं। प्रभु के गुणों का चिन्तन करते हुए यह महसूस करें कि उसके आनन्द, अभयता आदि गुण आपमें आ रहे हैं।

भूल से या अज्ञानता से यदि मन इधर-उधर जाए तो तत्काल मन को पुन: धारणा स्थल पर टिकाकर प्रभु की पूर्ण निष्ठा, श्रद्धा, प्रेम व तन्मयता से चिन्तन करना है।

ध्यान का अर्थ :
कुछ भी न विचारना, विचार-शुन्य हो जाना नहीं है। जिस प्रकार पीपे (टिन) में से तेल आदि तरल पदार्थ एक धारा में निकलता है उसी प्रकार प्रभु के एक गुण (आनन्द, ज्ञान आदि) को लेकर सतत् चिन्तन करते रहना चाहिए। जैसे सावधानी के हटने पर तेल आदि की धारा टूटती है। वैसे ही किसी एक आनन्द आदि गुण के चिन्तन के बीच में अन्य कुछ चिन्तन आने पर ध्यान-चिन्तन की धारा टूट जाती है। ध्यान में एक ही विषय रहता है, उसी का निरन्तर चिन्तन करना होता है। ध्यान में निर्विषय होने का अभिप्राय यह है कि जिसका ध्यान करते हैं, उससे भिन्न कोई  विषय नही हो । दूसरे शब्दों में ध्यान को ही उपासना कहा जाता है।

यधपि ध्यान का सर्वोत्तम समय सुबह का है फिर भी ध्यान दिन के किसी भी समय, कितनी ही बार किया जा सकता है परन्तु प्राणायाम को ध्यान की प्रक्रिया में तभी शामिल करें यदि वह समय प्राणायाम के नियमों के अनुकूल हो।

योग का आठवां अंग — समाधि

ध्यान करते-करते जब परोक्ष वस्तु का प्रत्यक्ष (दर्शन) होता है, उस प्रत्यक्ष को ही समाधि कहते हैं।

जिस प्रकार आग में पड़ा कोयला अग्नि रूप हो जाता है और उसमें अग्नि के सभी गुण आ जाते हैं। उसी प्रकार समाधि में जीवात्मा में ईश्वर के सभी गुण प्रतिबिंम्बित होने लगते हैं।

जीवात्मा का मात्र एक प्रयोजन मुक्ति प्राप्ति है और योगी इस प्रयोजन को समाधि से पूर्ण करता है।

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दिव्यदर्शन योग सेवा संस्थान (रजि.)
बादलपुर, ग्रेटर नोयडा (उ.प्र.) भारत- 203207
संपर्क- 09717617357, 9015151607
ईमेल - divyadarshanyog@gmail.com

6 comments:

  1. अति उत्तम जानकारी आपने दी है । हे मान्यवर! मनुष्य को केवल एक बार ही किसी उत्तम कार्य मे प्रवर्त्त नहीं किया जा सकता है।उसे बारम्बार सद्प्रेरणा की आवश्यकता होती है। प्रेरणा प्रदान करने के लिए पहले उसकी रुचि के अनुरूप ही प्रेरण प्रेषित करना उचित रहता है। आजकल भौतिक भोग में लिप्त मानव को रोगों से छुटकारा चाहिए इसलिए योगासन को रोगों की निवारकता से जोड़कर ही मनुष्य को इस शुभ मार्ग की ओर लाया जा सकता है। अतः कृपया करके योगासनों के सचित प्रकाशन भी सहज सुलभ कराएं।
    धन्यवाद।

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    1. जी सही कहा आपने जरुर प्रयास करते हैं |

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  2. Deep effect on my heart
    Thanks for it...

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  3. बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी के लिए धन्यवाद

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