जानें योग साधना और चित्त की पाँच अवस्थाएँ
जानें योग साधना और चित्त की पाँच अवस्थाएँ
चित्त की पाँच अवस्थाएं होती है- क्षिप्त, विक्षिप्त, मूढ़, एकाग्र, निरोध | इनमें तीन आरम्भ की संसारी मनुष्यों को आती हैं और अन्त की दो साधकों से सम्बन्ध रखती हैं |
जगत् की रचना गुणों के आधार पर हुई है, यह सत्, रज और तम तीन गुण प्रत्येक प्राणी के अन्दर रहकर अपना-अपना प्रभाव दिखाते रहते हैं | चित्त की पाँच अवस्थाओं में भी इनका ही हाथ रहता है | क्षिप्त और विक्षिप्त रजोगुण से उत्पन्न होती हैं I मूढ़ावस्था तमोगुण के बढ़ जाने पर आती है और एकाग्र व निरोध की अवस्था सतोगुणी है | रजोगुणी प्रभाव अंतःकरण को अशान्त और चंचल बनाता है | तमोगुण सुस्ती, काहिली और अज्ञान देता है एवं सतोगुण शान्ति, आनन्द, प्रकाश और ज्ञान अर्पण करता है | वस्तु के अन्दर इन तीनों में से किसी का अभाव किसी काल में भी नहीं होता, केवल इनमे विषमता आती रहती है | रजोगुण के उभरने पर ‘सतोगुण और तमोगुण’ इतने दब जाते है कि ढूंढे से भी इनका पता नहीं मिलता, इसी तरह सतगुण के समय ‘रजोगुण और तमोगुण’ और तमोगुण की प्रधानता आने पर ‘सतोगुण और रजोगुण’ का पता नहीं रहता | इन गुणों की विषमता को दूर करके इन्हें अपने अन्दर समता में ले आने के लिये ही साधन और अभ्यास करते है | यह गुणों की साम्यावस्था ही “त्रिगुणातीत” पद कहलाता है, यही ‘कैवाल्यावस्था’ है | जो इसे प्राप्त कर चुके हैं वही महापुरुष ‘जीवन मुक्त’ माने जाते हैं |
साधना की प्रथमावस्था में साधक के लिये रजोगुण और तमोगुण के प्रभाव से अपने को हटा के सतोगुण के राज्य में लाना होता है | क्षिप्त, विक्षिप्त और मूढ़ अवस्थाओं से नाता तोड़ के एकाग्र और निरोध की ओर बढ़ाना होता है | आगे इनसे भी ऊपर जाना होता है | सतोगुण को भी पीछे डालना होगा, तब साधना पूरी होगी और उसकी अन्तिम अवस्था होगी |
क्षिप्त- यह रजोगुणी अवस्था जब प्रबल होती है तो मन में तरंगे उठने लगती हैं | वह नई-नई वासनायें उठाता, नये-नये मंसूबे बांधता और नये-नये ख्याली पुलाव पकाता है और उनके पूरे न होने पर क्षोभित होता है | मुझे धन मिल जाय तो ऐसा मकान बनाऊँ, रईस बन जाऊं, मेरे पुत्र हो जाय तो उसे पढाऊँ, लिखाऊँ या मैं पढ़-लिखकर होशियार हो जाऊँगा तब ऐसी नौकरी मिलेगी ऐसे हुकूमत करूँगा, इत्यादि | जब लालसायें उसकी पूरी नहीं होतीं तो परेशान होता है, यही क्षिप्तावस्था है |
विक्षिप्त- इन इच्छाओं के पूरी होने पर जो खुशी थोड़ी देर के लिये मिलती है चित्त में जो क्षणिक आनंद प्राप्त होता है वह विक्षिप्त अवस्था कहलाती है |
मूढ़- यह वह अवस्था है जिसमें न तो अच्छे बुरे का विचार रहता है, न अपने हानि-लाभ की ओर ध्यान जाता है, हर समय अज्ञान और अंधकार ह्रदय पर छाया रहता है, जीव न आगे बढ़ने की चेष्टा करता है और न पीछे हटने की | काहिलों की तरह जहाँ पड़ा है, वहीं पड़ा है, जहाँ बैठा है वहीं बैठा है, कोई समझ बुझ नहीं, कोई प्रयत्न नहीं | यह तामसी अवस्था है |
एकाग्र- चित्त की यह चौथी अवस्था एकाग्र-साधकों से सम्बन्ध रखती है | अभ्यास क्षिप्त और विक्षिप्त से आरम्भ होता है, रजोगुण से चलता है और आगे चलके सतोगुण में प्रवेश कर जाता है | चित्त में एकाग्रता आने के साथ ही सतोगुणी राज्य आ जाता है | अभ्यासी दिव्य प्रकाश व दिव्य आनन्द का अनुभव करता है, प्रसन्न और शांत दिखाई देता है |
निरोध- एकाग्र अवस्था में चित्त एक वस्तु को सम्मुख रखता है उसी को देखता, उसी के पकडने के प्रयत्न में रहता है, उसी पर ध्यान जमाता और उसी को लक्ष्य बनाता है | ऐसा करते-करते वह थोड़ी देर के लिये ऐसा बन जाता है कि उसे न तो अपना ज्ञान रहता है और न लक्ष्य का, न वह अपने को देख रहा है और न अपने ध्येय को, इस तन्मयता को ‘निरोधावस्था’ कहते है | यह सतोगुण की ऊंची व अन्तिम अवस्था है | यहाँ पर योग साधन खत्म हो चुकते है और योग विद्या का आरम्भ होता है; इसको ही ‘योग सिद्धि’ कहते हैं | महर्षि पतंजलि लिखते हैं-
“योगश्चित्त-वृत्तिनिरोधः” अर्थात् वृत्तियों के निरोध होने पर योग होता है |
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