जानें योग साधना के महत्वपूर्ण प्राणायाम

जानें योग साधना के महत्वपूर्ण प्राणायाम 

नाड़ीशोधन प्राणायाम :

मनुष्य के रहन- सहन में अज्ञात अथवा प्रमादवश जो भूलें हो जाती हैं, उनके कारण शरीर में मलवृद्धि होती रहती है। यह मल देह के समस्त नाड़ी जाल को गन्दा और अवरुद्ध कर देता है। प्राणायाम के दौरान शुद्ध वायु खींचकर उसमें सम्मिलित प्राण शक्ति को रक्त के साथ मिलाकर उस मल को भस्म करके बाहर निकाल दिया जाता है। 

इस प्रकार नाड़ियों के शुद्ध होने से रक्त का प्रवाह अबाध गति से समस्त शरीर में होने लगता है और उसकी चैतन्यता, स्फूर्ति पहले की अपेक्षा बहुत बढ़ जाती है। 

सहज आसन में मेरुदण्ड सीधा करके बैठिए। प्राणायाम मुद्रा में दायाँ नथुना बन्द करके बायें नथुने से गहरी श्वास खीचिए और उसे नाभि चक्र तक ले जाइए। ध्यान कीजिए कि नाभि स्थान में पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्र के समान पीतवर्ण शीतल प्रकाश विद्यमान है। खींचा हुआ श्वास उसे स्पर्श कर रहा है। आसानी से जितना सम्भव हो श्वास भीतर रोकिए। 

ध्यान कीजिए, आपकी संस , हृदय और मस्तिष्क चन्द्रमा के समान शीतल और प्रकाशवान् और पवित्र बन रहे हैं। जिस नथुने से श्वास खींचा था, उसी बाएँ छिद्र से ही श्वास बाहर निकालिए, ध्यान कीजिए लौटने वाली वायु इड़ा नाड़ी को शीतल प्रकाशवान् बना रही है। कुछ देर श्वास बाहर रोकिए और फिर से उपर्युक्त क्रिया बाएँ नथुने से ही तीन बार कीजिए। 

जिस प्रकार बाएँ नथुने से पूरक, अन्तःकुम्भक, रेचक, बाह्य कुम्भक किया था; उसी प्रकार दाहिने नथुने से भी उपर्युक्त क्रिया तीन बार कीजिए।

नाभिचक्र में चन्द्रमा के स्थान पर सूर्य का ध्यान कीजिए और श्वास छोड़ते समय भावना कीजिए, लौटने वाली वायु पिंगला नाड़ी के भीतर उष्णता एवं प्रकाश पैदा कर रही है। 

अब नासिका के दोनों छिद्रों से श्वास लीजिए, भीतर रोकिए और मुँह खोलकर श्वास बाहर निकाल दीजिए। तीन बार बाएँ नासिका से श्वास खींचना- छोड़ना, तीन बार दाएँ नासिका से श्वास खींचना- छोड़ना तथा एक बार दोनों नासिका छिद्र से श्वास खींचना और मुँह से निकालना |

यह सात विधान मिलकर एक नाड़ी शोधन प्राणायाम हुआ। ऐसे तीन प्राणायाम पूरे कीजिए शेष समय में सहज लयबद्ध श्वास के साथ शान्ति का अनुभव कीजिए। 

प्राण संचार प्राणायाम :

प्राण संचार प्राणायाम से शरीर की नाड़ियों में प्राण वायु का प्रवेश कराकर समस्त देह में चैतन्यता का संचार किया जाता है। इससे शरीर इस योग्य बन जाता है कि अन्य शक्तिशाली प्राणायाम के प्रभाव को ग्रहण कर सके।

शान्त, मेरुदण्ड सीधा करके बैठें। ध्यान करें कि गुरुसत्ता, ऋषिसत्ता की अनुकम्पा से साधना स्थल दिव्य प्राण- प्रवाह से भर गया है। हमारे भाव भरे आवाहन और गुरुसत्ता के ध्यान- निर्देशों के प्रभाव से वह दिव्य चेतन प्राण हमारी ओर उन्मुख है। माँ की ममता के भाव से हमें लपेटे हुए है। 

गहरी तृप्तिदायक श्वास दोनों नथुनों से खींचें। जितनी देर में वायु खींची है, उससे लगभग आधे समय तक अन्दर रोकें। जितने समय में खींचा, उतने ही समय में धीरे -धीरे बाहर निकालें। अन्दर जितने समय रोका, उतने ही समय बाहर रोकें।

श्वास खींचते समय भाव करें कि हम उस दिव्य प्राण प्रवाह को सम्मानपूर्वक शरीर के हर अंग- अवयव तक पहुँचा रहे हैं। श्वास रोकते समय भाव करें- वह दिव्य ताजा प्राण हमारे शरीर में स्थापित हो रहा है। पुराने, बासी प्राण को विस्थापित कर रहा है।

श्वास निकालते समय भाव करें- वायु के साथ बासी प्राण विकारों सहित बाहर जा रहा है। बाहर रोकते समय भाव करें- निष्कासित प्राण विकार दूर चले गये, अन्दर दिव्य प्राण प्रकाशित हो रहा है। अंग- अंग पुलकित हो रहे हैं। 

अनुलोम विलोम प्राणायाम :

अनुलोम विलोम प्राणायाम का अभ्यास साधकों के लिए बहुत ही शक्तिशाली होता है। इस प्राणायाम के द्वारा मन एकाग्र होता है। आज्ञाचक्र का जागरण होता है। इससे इड़ा- पिङ्गला नाड़ियों का शोधन होता है तथा प्राणों का सन्तुलन बनाने में सहायता मिलती है। 

ध्यानात्मक आसन में बैठें। बायें नथुने से गहरी श्वास खींचें, भाव करें कि श्वास नासिका मार्ग से ऊपर भ्रूमध्य तक जाती है। थोड़ी देर श्वास रोकें, आज्ञाचक्र में प्रकाश का ध्यान करें। जितनी देर आसानी से श्वास रोक सकें, रोकें, तत्पश्चात् दायें नथुने से श्वास बाहर निकाल दें। थोड़ी देर श्वास को बाहर रोकें। आज्ञाचक्र में प्रकाश का ध्यान करें। इसके बाद दाहिने नथुने से पूरक करें और बायें से रेचक करें। 

उज्जायी प्राणायाम :

उज्जायी प्राणायाम उत् + जयी शब्दों से मिलकर बना है। उत् अर्थात् ऊर्ध्वगति तथा जयी का अर्थ है इन्द्रिय जय होना अर्थात् इन्द्रिय जय सहित प्राणों के उन्नयन में इससे मदद मिलती है। कण्ठ में विशुद्धि चक्र है, यह चक्र मस्तिष्क तथा हृदय के बीच में दोनों के बीच समन्वय सन्तुलन बनाता है, इसलिए इस प्राणायाम में कण्ठ को सक्रिय करते हुए प्राणायाम किया जाता है।

यह प्राणायाम शान्ति प्रदान करने के साथ- साथ शरीर को उष्णता प्रदान करता है। अनिद्रा को दूर करता है। उच्च रक्तचाप के रोगियों के लिए उपयोगी है। यह प्राणायाम रक्त, अस्थि, मज्जा, मेद, वीर्य, त्वचा एवं मांस की व्याधि को दूर करता है। 

ध्यानात्मक आसन में बैठें। ठोड़ी को थोड़ा झुका लें। गले में सरसराहट की आवाज के साथ श्वास खींचें, थोड़ी देर रोकें, पुनः दोनों नथुनों से श्वास बाहर निकाल दें। नासिका में आती जाती श्वास के प्रति सजग बने रहें और श्वसन को धीमा एवं लयपूर्ण होने दें। 

थोड़ी देर बाद अपनी सजगता गले पर ले जाएँ। ऐसा अनुभव करें कि श्वास नासिका से नहीं; बल्कि गले के एक छोटे से छिद्र से आ- जा रही है।

श्वास की आवाज बहुत तेज नहीं होनी चाहिए। वह केवल अभ्यासी को सुनाई पड़नी चाहिए। दूसरा व्यक्ति जब तक बहुत निकट न बैठा हो, उसे यह आवाज सुनाई नहीं पड़नी चाहिए।

उज्जायी प्राणायाम सहज प्राणायाम या अजय प्राणायाम ("सहज" श्वास नियन्त्रण) भी कहलाता है।

इसका उपयोग क्रिया योग और ध्यान में किया जाता है। योग ग्रन्थों में कहा गया है कि सहज श्वास समाधि प्राप्ति का मार्ग है या अन्य शब्द में कहा जाये तो चेतना के उच्चतर स्तर की प्राप्ति का मार्ग है। सहज श्वास का अर्थ मंत्र "सो हम" के साथ श्वास लेने की सहज प्रक्रिया पर ध्यान एकाग्र करना है। यह मंत्र अपने अन्दर के स्व को पुकारने के समान है। इस मंत्र के लगातार उच्चारण से "सो और हम" शब्द का एक चक्र बन जाता है : मैं वह हूँ - वह मैं हूँ - मैं वह हूँ...।

भ्रामरी प्राणायाम :

भ्रामरी प्राणायाम का मुख्य उद्देश्य मानसिक शान्ति की प्राप्ति है। प्राणायाम का साधारण लाभ भी उसमें है और अन्य प्राणायामों की तरह फेफड़ों को भी उससे शक्ति प्राप्त होती है। इस प्राणायाम के अभ्यास में भ्रामरी का शब्द सुनते- सुनते ओंकार और अन्य प्रकार के दिव्य शब्द भी सुनाई पड़ने लगते हैं, जिससे मन की शान्ति और तन्मयता की बहुत अधिक वृद्धि हो जाती है। 

आसन में बैठें। दोनों हाथों की तर्जनी उँगलियों से कानों को बन्द कर लें। दोनों नथुनों से गहरी श्वास खींचें। भौंरे के गुँजन की तरह गहरी और मन्द ध्वनि उत्पन्न करते हुए धीरे- धीरे श्वास बाहर छोड़ें। श्वास छोड़ते समय गुँजन की ध्वनि मधुर, सम और अखण्ड होनी चाहिए। ध्वनि इतनी मृदुल और मधुर हो कि कपाल के अग्र भाग में उसकी प्रतिध्वनि गूँजने लगे। 

अनुलोम विलोम सूर्यवेधन प्राणायाम :

कुण्डलिनी महाशक्ति के जागरण के लिए प्राण ऊर्जा की प्रचुर परिमाण में आवश्यकता पड़ती है। यह प्रयोजन सूर्यवेधन प्राणायाम द्वारा पूरा होता है। प्राण ऊर्जा का अभिवर्द्धन साधक की भौतिक और आध्यात्मिक सफलताओं का मार्ग प्रशस्त करता है। यह मस्तिष्क को शुद्ध करता है। वात रोग निवारक एवं कृमिनाशक है। 

जिस आसन में सहजता से 15 मिनट बैठ सकें, उसमें मेरुदण्ड सीधा रख कर बैठिए। स्वयं को तीर्थ चेतना, गुरुसत्ता के दिव्य आभामण्डल से घिरा हुआ अनुभव कीजिए। प्राणायाम मुद्रा में बायाँ नथुना दबाकर दाहिने नथुने से श्वास खींचना आरम्भ कीजिए। ध्यान कीजिए कि सूर्य की किरणों जैसा प्रवाह वायु में संमिश्रित होकर दाहिने नासिका छिद्र में अवस्थित पिंगला नाड़ी द्वारा अपने शरीर में प्रवेश कर रहा है और उसकी ऊष्मा अपने भीतरी अंग- प्रत्यंगों को तेजस्वी बना रही है। 

श्वास को कुछ देर भीतर रोकिए और ध्यान कीजिए कि श्वास के साथ खींचा हुआ तेज नाभिचक्र में एकत्रित हो रहा है। सूर्य चक्र प्रकाशवान् हो रहा है। चमक बढ़ रही है। बाएँ नासिका से श्वास को बाहर निकालिए, भाव कीजिए कि सूर्यचक्र को धुँधला बनाए रखने वाला कल्मष छोड़ी हुई श्वास के साथ पीतवर्ण होकर बाएँ नथुने की इड़ा नाड़ी द्वारा बाहर निकल रहा है।

सहजता से जितनी देर हो सके, फेफड़ों को बिना श्वास के खाली कीजिए। भाव कीजिए नाभिचक्र में एकत्रित प्राणपुत्र् अग्रि शिखाओं की तरह सुषुम्रा में ऊपर उठकर पेट के ऊर्ध्व भाग, फेफड़े, कण्ठ को प्रकाशित कर रहा है। 

इसी क्रम को उलटा कीजिए अर्थात् बाएँ से खींचना, अन्दर रोकना, दाएँ से बाहर निकालना और बाहर रोक देना। श्वास खींचते समय भाव कीजिए कि सविता का तेज नाभिचक्र में संगृहीत हो रहा है। अन्तःकुम्भक में ध्यान कीजिए कि नाभिचक्र सूर्यचक्र तेजस्वी हो रहा है। 

श्वास निकालते समय भाव कीजिए कि आन्तरिक विकार वायु के साथ बाहर जा रहे हैं। बाह्य कुम्भक के समय ध्यान कीजिए कि सूर्यचक्र का निर्मल तेज सुषुम्रा मार्ग से ऊपर की ओर बढ़ रहा है, भीतरी अवयवों में एक दिव्य ज्योति जगमगाती अनुभव कीजिए। 

दाएँ से खींचकर बाएँ से निकालना, पुनः बाएँ से खींचकर दाएँ से निकालना, अनुलोम विलोम सूर्यवेधन प्राणायाम का एक चक्र पूरा हुआ, ऐसे तीन प्राणायाम कीजिए। जो समय शेष रहे, उस समय सहज लयबद्ध श्वास के साथ शान्ति का अनुभव कीजिए। 

शक्तिचालिनी मुद्रा( विशिष्ट प्राणायाम)

कुण्डलिनी महाशक्ति की सामान्य प्रवृत्ति अधोगामी रहती है। रति क्रिया में उसका स्खलन होता रहता है। शरीर यात्रा की मल -मूत्र विसर्जन की प्रक्रिया भी स्वभावतः अधोगामी है। शुक्र का क्षरण भी इसी दिशा में होता है। इस प्रकार यह सारा संस्थान अधोगामी प्रवृत्तियों में संलग्र रहता है। इस महाशक्ति के जागरण व उत्थान के लिए शक्तिचालिनी मुद्रा की क्रिया सम्पन्न की जाती है। 

शक्तिचालिनी मुद्रा को विशिष्ट प्राणायाम कहा जा सकता है। सामान्य प्राणायाम में नासिका से साँस खींचकर प्राण प्रवाह को नीचे मूलाधार तक ले जाते हैं और फिर ऊपर की ओर उसे वापस लाकर नासिका द्वार से निकालते हैं, यही प्राण सच्चरण की क्रिया जब मल- मूत्र संस्थान से की जाती है तो शक्तिचालिनी मुद्रा कहलाती है। 

इस मुद्रा के द्वारा गुदा की पेशियाँ मजबूत होती हैं। मलाशय सम्बन्धी दोषों जैसे- कब्ज, बवासीर, गर्भाशय या मलाशय भ्रंश जैसे रोगों में लाभ मिलता है। प्राण शक्ति का क्षरण रुकता है। व्यक्तित्व प्रतिभा सम्पन्न बनता है। 

ध्यानात्मक आसन में बैठें। बाएँ नासिका से श्वास खींचते हुए भाव करें कि प्राण वायु गुदा व जननेन्द्रिय के छिद्रों से प्रवेश कर रही है। अन्तः कुम्भक करें।

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