त्रिदोष: वात, पित्त, कफ एवं चयापचयी प्रक्रियाओं का नियमन


त्रिदोष: वात, पित्त, कफ एवं चयापचयी प्रक्रियाओं का नियमन

त्रिदोष का संतुलित और साम्यावस्था में रहना स्वास्थ्य के लिए आवश्यक होता है। जिस तरह बाहरी जगत में अग्नि वायु द्वारा वृद्धि प्राप्त करती है तो अग्नि को नियन्त्रित करने का कार्य जल तत्व करता है अन्यथा अग्नि सब कुछ जलाकर भस्म कर देती है उसी तरह आन्तरिक जगत में यानी हमारे शरीर के अन्दर वायु द्वारा वृद्धि प्राप्त पित्त यानी अग्नि यदि कफ द्वारा नियन्त्रित न हो पाये तो शरीर की धातुएं भस्म होने लगती है। इसे इस तरह समझे कि वात, पित्त, और कफ तीनों मिलकर शरीर की चयापचयी प्रक्रियाओं का नियमन करते है। कफ (Anabolism) उपचय का, वात अपचय (Catabolism) का और पित्त चयापचयी (Metabolism) का संचालन करता है। यानी यदि वात की वृद्धि हो जाए तो शरीर में अपचय अधिक होने लगता है और शरीर में क्षयकारी प्रक्रियाएं बढ़ती है। इसे इस स्वाभाविक और प्रकृतिक उदाहरण से समझना और आसान होगा कि जीवन के आरम्भिक वर्षो मे यानी किशोरवस्था तक कफ-दोष स्वाभाविक रूप से प्रबल रहता है क्योंकि यह शारीरिक वृद्धि और विकास का काल होता है और इस दौरान उपचयकारी प्रक्रियाओं की आवश्यकता रहती है। जीवन के मध्य के वर्षो में यानी युवावस्था मे पित्त दोष प्रबल रहता है क्योंकि इस काल में शरीर व्यस्क हो जाता है और स्थिरता की जरूरत रहती है। वृद्धावस्था में वात दोष स्वाभाविक रूप से प्रबल रहता है क्योंकि यह वयोवृद्धि यानी शारीरिक क्षय यानी अपचयकारी (Catabolic) प्रक्रियाओं के प्रभावी होने का काल होता है। 

वात दोष - 

वात को मनुष्य के शरीर में गति का मूल तत्व या सिद्धान्त कहा जा सकता है। यह शरीर में सभी प्रकार की जैविक गति एवं क्रियाओं का संचालन करता है। यह चयापचय सम्बंधी सूक्ष्म से सूक्ष्म परिवर्तनों को उत्पन्न करने वाला तत्व हैं। श्वसन क्रिया, पेशियों, ऊत्तकों व कोशिकाओं में होने वाली गतिज प्रक्रियाएं, शरीर में रक्त और तन्त्रिकीय संवेगों का संचरण, उत्सर्जन आदि को संचालित करने वाला वात दोष हमारी भावनाओं और अनुभूतियों को भी संचालित करता है जैसे भय, चिन्ता, निराशा,दर्द, ऐंठन, कम्पन ताजगी आदि। वात संबधी रोग अधिक आयु होने पर तीव्र हो जाते है क्योंकि इस काल में वात प्राकृतिक रूप से शरीर में प्रबल रहता है। 

पित्त दोष - 

इस दोष में अग्नि तत्व की प्रधानता होती है। पित्त को अग्नि कहा जाता है हालाकि यह किसी अग्नि-कुण्ड की अग्नि की तरह दिखाई नहीं देता है। बल्कि चयापचय प्रक्रियाओं के रूप में अभिव्यक्त होता है। इसलिए इसके अन्तर्गत आहार का पाचन और पूरे शरीर की चयापचय प्रक्रियाओं में उपयोगी रसायन जैसे हारमोन्स,एन्जाइमस आदि आते है। पित्त दोष मुख्यत:, ग्रहण किये गये बाहरी तत्वों को शरीर के लिए उपयोगी आन्तरिक तत्वों में परिवर्तित करता है यानी केवल आहार का पाचन ही नहीं बल्कि कोशिकीय स्तर पर होने वाली प्रक्रियाओं का भी संचालन यह दोष करता है। शारीरिक स्तर पर जहां पित्त आहार का पाचन, अवशोषण, पोषण, चयापचय, शारीरिक तापमान, त्वचा का रंग आदि का संचालन करता है वहीं मानसिक स्तर पर मेधा, बुद्धि की तीव्रता,, क्रोध, घृणा, ईर्ष्या आदि का भी संचालन करता है। पित्त संबधी रोग मध्यम आयु के लोगों में अधिक तीव्र होते है क्योंकि आयु के इस काल में पित्त प्राकृत रूप से प्रबल रहता है। 

कफ दोष - 

कफ दोष को जैविक जल कहा जा सकता है। यह दोष पृथ्वी और जल इन दो महाभूतों द्वारा उत्पन्न होता है। पृथ्वी तत्व किसी भी पदार्थ की संरचना के लिए आवश्यक है यानी शरीर का आकार और संरचना कफ दोष पर आधारित है। यह रोग प्रतिरोधक शक्ति देने वाला तथा उतकीय व कोशिकीय प्रक्रियाओं को स्वस्थ्य रखने वाला तत्व है। यह शरीर की स्निग्धता, जोड़ों की मजबूती, शारीरिक ताकत और स्थिरता को बनाये रखता हैं। कफ संबधी रोग जीवन के शुरूवाती वर्षो में यानी किशोरावस्था में अधिक तीव्र होते है। क्योंकि जीवन के इस काल में कफ दोष प्राकृत रूप से प्रबल होता है। 

(NirogDham Varsha Ritu 2012 Se Saabhar) 

कफ-वात-पित्त आदि की चिकित्सा के बारे में संक्षेप में ही कितनी सुंदर बात कह दी गयी है। 

वमनं कफनाशाय वातनाशाय मर्दनम्। 
शयनं पित्तनाशाय ज्वरनाशाय लघ्डनम्।। 

अर्थात् " कफनाश करने के लिए वमन (उलटी), वातरोग में मर्दन (मालिश), पित्त नाश के शयन तथा ज्वर में लंघन (उपवास) " करना चाहिए। आयुर्वेद शास्त्र केवल रोगी की चिकित्सा करने में ही विश्वास नहीं करता, अपितु उसका तो सिद्धांत है- ’’रोगी होकर चिकित्सा करने से अच्छा है कि बीमार ही न पड़ा जाय।’’ इसके लिए आयुर्वेद शास्त्रों में स्थान-स्थान पर ऐसी बातें भरी पड़ी है, जिसके अनुपालन से वैद्य की आवश्यकता भी नहीं पड़ती। जैसे- 

भोजनान्ते पिबेत् तक्रं वैद्यस्य किं प्रयोजनम्।। 

तात्पर्य यह कि यदि रात्रि को शयन से पूर्व दुध, प्रात:काल उठकर जल और भोजन के बाद तक्र (मठ्ठा) पिये तो जीवन में वैद्य की आवश्यकता ही क्यों पड़ें? इस प्रकार के सूत्रों के आधार पर ग्राम्य जीवन में बारहों मास के उपयोगी खाद्यों का सुंदर संकेत इस प्रकार कर दिया गया है, , 

  • सावन हर्रे भादौं चीत, क्वार मास गुड़ खाये मीत। 
  • कातिक मूली अगहन तेल, पूषे करै दुध से मेल। 
  • माघे घी व खीचड़ खाय, फागुन उठि कै प्रात नहाय। 
  • चैत मास में नीम व्यसवनि, भर बैसाखे खाये अगहनि।। 
  • जेठ मास दुपहरिया सोवै, ताकर दुख अषाढ़ में रोवै।। 

बारहों मास के इन विधि-खाद्यों के अविरिक्त निषेध-खाद्य भी है 

जिन्हें भूलकर भी ग्रहण न करें जैसे- 


  • चैते गुड़ बैसाखे तेल, जेठे पथ आषाढ़े बेल। 
  • सावन साग न भादों दही, क्वार करैला कातिक मही।। 
  • अगहन जीरा न पूषे घना, माघे मिश्री फागुन चना।। 
  • इन बारह से बचे जा भाई ,ता घर कबहूँ वैद न जाई ।। 

आयुर्वेद का सिद्धांत है कि-’’भुक्त्वा शतपदं गच्छेच्छायायां हि शनै: शनै:’’। भोजन करने के बाद छाया में सौ पग धीरे-धीरे चलना चाहिए शयन से कम से कम 2-3 घंटे पहले ही भोजन कर लेना चाहिए, अन्यथा कब्ज रहेगी। इसके अतिरिक्त दीर्घायु के लिये भी एक जगह बड़ा सुंदर संकेत कर दिया है कि- 

वामशायी द्विभुजानो भण्मूत्री द्विपुरीषक:। 
स्वल्पमैथुनकारी च शतं वर्षणि जीवति।। 

अर्थात बायीं करवट सोने वाला, दिन में दो बार भोजन करने वाला, कम से कम छ: बार लघुशंका, दो बार शौच जानेवाला, तथा गृहस्थ में आवश्यक होने पर स्वलप-मैथुनकारी व्यक्ति सौ वर्ष तक जीता है।

शौच जानेवाले विषय पर किसी ने सही ही कहा है –
एक बार जाए योगी । 
दो बार जाए भोगी । 
बार बार जाए रोगी । 

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